Friday, April 6, 2012

सत्येन्द्र कुमार झा- विहनि कथा-अप्रासंगिक



आंगनमे दू गोट बालक खेला रहल छल। दुनू माय-बाबू, ओतहि एक कोनमे कुर्सीपर बैसल चाह पीबि रहल छला। एक बालकक हाथमे खिलौनाक पेस्तौल छल।
ओ दोसर बालकपर पेस्तौल तानैत अछि-“तोरा लग जे किछु छौ हमरा दऽ दे, नै तँ पेस्तौलक एक गोलीसँ तोहर खोपड़ि उड़ा देबौ।”
दोसर बालक सहमि जाइत अछि। हड़बड़ाइत उठैछ- “तोरा की चाहियौ? हमरा लग तीन मोबाइल, एक लैपटॉप, एक कम्प्युटर, एक एल.सी.डी. टीवी, फ्रिज, बैंक लॉकरमे बहुते रास सोन आ रुपैआ अछि...आर हँ, हमरा लग हमर डैडी आ मम्मी सेहो अछि।”
पहिल बालक एक्शन दैत पेस्तौल दोसर बालकक कनपट्टीमे सटा दैत अछि आ फेर जोरसँ बजैत अछि- “शटअप...तूँ अपन मम्मी-डैडीकेँ छोड़ि बांकी सभ किछु हम्मर हवाले कऽ दे, नै तँ...। ”
कातमे बैसल पहिल बालकक माए-बाबूक मुखपर भएक रेख स्पष्ट होमए लगैत अछि। हुनका लगैत छन्हि जे ओ बेटाक नजरिमे अखनहिसँ अप्रासंगिक भऽ गेल छथि।

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