Thursday, April 12, 2012

जीवन यात्रा :: जगदीश मण्‍डल


जीवन यात्रा

गंगोत्रीसँ गंगाजल धरतीसँ बाहर निकलि चलि पड़ल। पहाड़सँ नि‍च्‍चाँ आरो निच्चाँ होइत मैदानमे पहुँचल। एक गोटे ऐ प्रक्रियाकेँ गंभीरतासँ देखि‍ रहल छल। आगू मुँहे जल बढ़ैत गेल, बढ़ैत गेल। जइमे अनेको जल-नद आबि-आबि मिलैत गेल। जइसँ एक विशाल नदी बनि गेल। ओ नदी जाइत-जाइत समुद्रमे मिलि‍ गेल। जे व्यक्ति देखि‍ रहल छलै। ओइ व्यक्तिक मनमे भेलै जे जलक ई मुरुखपना छी। किएक तँ जे हिमालयक उच्च शिखर छोड़ि, अनेक प्रकारक दुख उठा, नोनगर पानिमे मिलल। एकरा मुरुखपना नै कहबै तँ की कहबै? ओइ व्यक्तिक मनः स्थितिकेँ नदी बूझि गेल। कहलक- अहाँ हमर यात्राक मर्म नै बूझि सकलौं। कतबो ऊँच हिमालय किअए ने हुअए मुदा ओ अपूर्ण अछि। पूर्णता तँ गहराइमे होइ छै, जइठाम पहुँचलापर मनक सभ कामना समाप्त भऽ जाइ छै। हम हिमालय सन महान ऊँचाइक आत्मा छी जे पूर्णता पबैक लेल निरन्तर चलैत समुद्रक गहराइमे पहुँचलौं तँए, हमरा बेहद खुशी अछि, अप्पन लक्ष्य धरि पहुँचि‍ गेलौं।

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