पवनक विवेक
चन्द्रमाकेँ दू सन्तान- एक बेटा आ एक बेटी। बेटाक नाओं
पवन आ बेटीक आँधी। एक दिन आँधीक मनमे उपकल जे पिता सांसरिक पिता जकाँ हमरो दुनू भाए-बहिनमे
भेद करै छथि। आँधीक बेथाकेँ चन्द्रमा बूझि गेलखिन। बेटीक आत्मनिरीक्षणक लेल चन्द्रमा
एकटा अवसर देबाक विचार केलनि।
दुनू भाए-बहिनकेँ बजा कहलखिन- “बाउ, अहाँ सभ स्वर्गक इन्द्रक
काननक परिजात नामक देववृक्षकेँ देखने छी?”
दुनू भाए-बहिन- “हँ।”
पिता- “अहाँ दुनू ओतए जाउ आ सात खेपि ओकर परिक्रमा कए कऽ आउ।”
पिताक आज्ञा मानि दुनू गोटे चलि देलक। आँधी हू-हू-आ कऽ
दौगल। जइसँ गरदा, खढ़-पात आ कूड़ा-कड़कट उड़बैत लगले पहुँचि आ सात बेर परिक्रमा कऽ चोट्टे घुमि कऽ आबि गेल। मने-मन आँधी सोचैत जे
हम्मर काज देखि पिता प्रशंसा करताह।
पवन पाछू घुमि कऽ आएल। ओकरा संग सौंधी-सुगंध सेहो आएल।
जइसँ सौंसे घर गमकि उठल।
मुस्कुराइत चन्द्रमा बेटीकेँ कहलखिन- “बेटी, अहाँ नीक जकाँ बूझि गेल
हेबै जे जे अधिक तेज गतिसँ चलत ओ खाली झोरा लऽ कऽ आओत मुदा जे स्वाभाविक गतिसँ चलत ओ
मनकेँ मुग्ध करैबला सुगंध सेहो लाओत। जइसँ सौंसे वातावरण सुगंधित होएत।
वानप्रस्थक
यात्रा पवन देवक सदृश उद्देश्यपूर्ण होइत।
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