Thursday, April 12, 2012

पवनक विवेक :: जगदीश मण्‍डल


पवनक विवेक

चन्द्रमाकेँ दू सन्तान- एक बेटा आ एक बेटी। बेटाक नाओं पवन आ बेटीक आँधी। एक दिन आँधीक मनमे उपकल जे पिता सांसरिक पिता जकाँ हमरो दुनू भाए-बहि‍न‍मे भेद करै छथि। आँधीक बेथाकेँ चन्द्रमा बूझि गेलखिन। बेटीक आत्मनिरीक्षणक लेल चन्द्रमा एकटा अवसर देबाक विचार केलनि।
दुनू भाए-बहि‍नकेँ बजा कहलखिन- बाउ, अहाँ सभ स्वर्गक इन्द्रक काननक परिजात नामक देववृक्षकेँ देखने छी?”
दुनू भाए-बहि‍न- हँ।
पिता- अहाँ दुनू ओतए जाउ आ सात खेपि‍ ओकर परिक्रमा कए कऽ आउ।
पिताक आज्ञा मानि दुनू गोटे चलि देलक। आँधी हू-हू-आ कऽ दौगल। जइसँ गरदा, खढ़-पात आ कूड़ा-कड़कट उड़बैत लगले पहुँचि‍ आ सात बेर परिक्रमा क चोट्टे घुमि‍ क आबि गेल। मने-मन आँधी सोचैत जे हम्मर काज देखि‍ पिता प्रशंसा करताह।
पवन पाछू घुमि‍ कऽ आएल। ओकरा संग सौंधी-सुगंध सेहो आएल। जइसँ सौंसे घर गमकि उठल।
मुस्कुराइत चन्द्रमा बेटीकेँ कहलखिन- बेटी, अहाँ नीक जकाँ बूझि गेल हेबै जे जे अधिक तेज गतिसँ चलत ओ खाली झोरा लऽ कऽ आओत मुदा जे स्वाभाविक गतिसँ चलत ओ मनकेँ मुग्ध करैबला सुगंध सेहो लाओत। जइसँ सौंसे वातावरण सुगंधित होएत।
वानप्रस्थक यात्रा पवन देवक सदृश उद्देश्यपूर्ण होइत।

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