Thursday, April 12, 2012

डर नै करी :: जगदीश मण्‍डल


डर नै करी

उगैत सुरुज जकाँ जिनगी अपन दिशामे अपना ढंगसँ बढ़ैत जा रहल छल। एक विरामपर जा जिनगी पाछू मुँहे घुमि‍ क तकलक तँ चौंक गेल। चंडालिनी सन कारी आ कुरुप छाया पाछू-पाछू अबैत छल। छायाकेँ देखि‍ जिनगी ललकारि कऽ पुछलक- अभागिनी, तोँ के छेँ? हमरा पाछू-पाछू किएक अबै छेँ? तोहर कारी आ कुरुप काया देखि‍ हमरा डर होइए। जो भाग। हमरासँ हटि कऽ रह।
छाया छिप गेल। मुदा जिनगी घिंघयाइत बढ़ल। पुनः छाया आबि कहलकै- बहिन, हम तोहर सहचरी छियौ। तोरे संग हमहूँ चलि रहल छी। आ अंतमे दुनू गोटे संगे रहब। तँए डरैक कोनो बात नै। तोँ हमरा नै चिन्है छेँ, हमरे नाओं मृत्यु थिक।
मृत्युकेँ पाछू लगल अबैत देखि‍ जिनगी डरि गेल। सकपका क गिर पड़ल।

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