Thursday, April 12, 2012

परख :: जगदीश मण्‍डल


परख

एकटा किसानकेँ चारिटा बेटा रहए। बेटा सबहक बुइध परखैले किसान सभकेँ बजा एक-एक आँजुर धान दऽ कहलक- तूँ सभ अपन-अपन विचारसँ एकरा उपयोग करह
धानकेँ कम बूझि जेठका बेटा आंगनमे छिड़िया देलक। चिड़ै सभ आबि बीछ-बीछ खा गेल। ओइ धानकेँ माझिल बेटा तरहत्थीपर लऽ-लऽ रगड़ि-रगड़ि, भुस्साकेँ मुँहसँ फूकि, खा गेल। बापक देल धानकेँ सम्पति‍ बूझि साँझिल बेटा कोहीमे रखि लेलक, जे जँ कहियो बाबू मंगताह तँ निकालि कऽ दऽ देबनि। छोटका बेटा, ओइ धानकेँ खेतमे बाउग कऽ देलक। जइसँ कएक बर बेसी धान उपजलै।
किछु दिनक बाद चारू बेटाकेँ बजा किसान पुछलक- धान की भेल?”
चारू बेटा अपन-अपन केलहा काज कहलकनि। चारू बेटाक काज देखि‍ किसान छोटका बेटाकेँ बुधि‍यार बूझि परिवारक भार दैत कहलक- परिवारमे एहने गुण अपनबए पड़ैत छै। एहने गुण अपनौलासँ परिवार सुसम्पन्न बनैत छै।

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