Thursday, April 12, 2012

ऊँच-नीच :: जगदीश मण्‍डल


ऊँच-नीच

एक राति, जखन पुजेगरी मंदिरक केबाड़ बन्न कऽ चलि गेल, स्तम्भक माने खुटाक पाथर देवमूर्ति बनल पाथरसँ पुछलक- की भाय, हम सभ तँ एक्के पहाड़क पाथर छी। फेर अहाँक पूजा होइए आ हम जे मकानक -मंदिरक- भार उठैने छी से हम्मर कोनो मोजरे नै?”
देवताक आसनपर बैसल पाथर मने-मन विचार करए लगल। मुदा प्रश्नक जबाब नै बूझि कहलक- भाय, हम ऐ रहस्यकेँ नै जनै छी। पुजेगरी विद्वान छथि हुनकासँ बूझि काल्हि कहबह।
प्रातःकाल पुजेगरी आबि पूजा करए लगल। फूल-पात चढ़ा, दुनू हाथ जोड़ि पुजेगरी धि‍यान केलनि आकि देव-पाथर पुछलखिन- मंदिरमे जते पाथर अछि सभ तँ गुण-जातिसँ एक्के अछि। फेर हम किएक पूजनीए छी?”
पुजेगरी- हे देव, अपने बड़ पैघ बात पुछलौं। एक गुण, घर्म आ जातिक सभ वस्तुक उपयोग एक्के पदक लेल होय, ई सर्वथा असंभव अछि। प्रकृति ककरो एक रंग नै रहए दैत अछि। जे मनुष्योमे अछि। बहुतो मनुखमे एक तरहक प्रतिभा आ गुण-घर्म होइए मुदा ओहूमे अपन श्रेष्ठ कर्मक कारणे कियो सभसँ आगू बढ़ि जाइत आ कियो पाछू पड़ि जाइत। तँए एकर अर्थ ई नै जे ओ -पाछू पड़ल- अपनाकेँ हेय बुझए। किएक तँ परिवर्त्तन सृष्टिक निअम छिऐ। आइ जे ऊपर अछि ओ काल्हियो ऊपरे रहत एकर कोनो गारंटी नै छै। तहिना जे निच्चाँ अछि ओ सभ दिन निच्चेँ रहत सेहो बात नै।

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