सीखैक जिज्ञासा
महादेव गोविन्द रानाडे दछिन भारतक रहथि। ओ बंगला भाषा
नै जनैत रहथि। एक दिन रानाडे कलकत्ता गेलाह। कलकत्तामे अपन काज-सभ निपटा आपस होइले
गाड़ी पकड़ए स्टेशन एलाह तँ एकटा बंगला अखबार कीन लेलनि। बंगला अखबार देखि आश्चर्यसँ
पत्नी कहलकनि- “अहाँ तँ बंगला नै जनै छी तखन अनेरे
ई अखबार किअए किनलौं?”
मुस्कुराइत रानाडे जबाब देलखिन- “दू दिनक गाड़ी यात्रा अछि। आसानीसँ
बंगला सीख लेब।”
नीक-नहाँति रानाडे बंगला लिपि आ शब्दक गठनपर धियान
दऽ सीखए लगलथि। पूना पहुँचि पत्नीकेँ धुर-झार अखबार पढ़ि कऽ सुनबए लगलखिन।
एहेन छलनि
साठि वर्षीए रानाडेक मनोयोग। तँए अंतिम समए धरि हर मनुखकेँ सीखैक जिज्ञासा रहक चाही।
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