Thursday, April 12, 2012

अनगढ़ चेतना :: जगदीश मण्‍डल


अनगढ़ चेतना

ज्ञान अनगढ़ चित्तकेँ सुगढ़ बनबैत अछि‍। जइसँ सोचै आ चलैक दिशा निर्धारित होइए। ओना मनुखक अनगढ़ताक प्राप्ति जन्मजात होइ छै। जहिना शरीरक रक्षाक लेल भोजनक प्रयोजन होइत अछि‍ तहिना मनुखता प्राप्त करए लेल विद्याक।
वशिष्ठजी रामकेँ भयंकर वनमे विचरण करैबला उनमत्तक आँखिक देखल कथा सुनबैत कहलखिन- उनमत्त देखैमे तँ स्वस्थ बूझि पड़ैत मुदा ओकर जे क्रिया-कलाप होइत ओ विल्कुल पागलक सदृश होइत। सदिखन रास्ताक व्यतिक्रम करैत। जहाँ-तहाँ बौआएलो घुमैत आ अन्ट-सन्ट रास्ता सेहो बनबैत। जइसँ अपनो देह-हाथक नोकसान करैत आ काँट-कुशमे ओझराइलो रहैत। मुदा तैयो अपनाकेँ बुधि‍यार बूझि दोसराक नीको विचारकेँ मोजर ने दैत। जइसँ सदिखन भय माने डर आ चिन्तासँ मन त्रस्त रहैत। मुदा तैयो ने अधलाह रास्ता छोडै़त आ ने ककरो नीक करैत।
वशिष्ठक विचार सुनि राम पुछलखिन- भगवन, ओ उन्मादी कतए रहैत अछि, ओकर नाओं की छि‍ऐक आ ओकर कोनो उपचार छै की नै?”
वशिष्ठ- वत्स, ओ कियो आन नै, मनुखक अनगढ़ चेतना छी। जे जालमे फँसल ओइ चिड़ै सदृश अछि जे मरैक रास्ता देखि‍ फड़फड़ाइत तँ अछि मुदा निकलैक रस्ते ने देखैत।

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