Saturday, February 23, 2013

तरेगन



इजोरिया राति, चन्द्रमाक दूध सन इजोतसँ राइतो दिन जँका बुझाइत | माँझ आँगनमे पटीयापर, अपन बाबीक पाँजरमे सुतलसँ जागि कए तीन बरखक नेना एकटक मेघक तरेगन दिस टकटकी लगोने ताकैत | आँखिक पपनी एकदम स्थीर, उपरकेँ उपर आ निँचाकेँ निँचा, जेना की कोनो हराएल प्रिय वस्तुकेँ ताकि रहल हुए |
किछु घड़ीबाद नेनाक बाबीक निन टूटल तँ नेनाकेँ बैसल देख ओहो हरबड़ा कए उठैत – “की बौआ किएक बैसल छ, आ ई मेघमे की देखै छ |”
नेना धनसन बाबीक बोल ओकर कान तक तँ जाइ मुदा दिमाग तक नहि जाइ | ओ तरेगन दिस एतेक तन्मयतासँ देखेए जे ध्यान उम्हरे एकाग्र |
नेनाक बाबी दुनू हाथसँ नेनाकेँ हिलाबैत – “बौआ की भेल, की देखै छी |”
“तरेगन गनैछी |”
“किएक |”
“काइल्ह सरजू कहलक जे मुइलाबाद लोक तरेगन बनि जाइ छै तैँ हम तरेगन गानि कए देखै छी जे कोन कोन तरेगन बेसी अछि ओहिमे सँ अवस्य एकटा हमर माए हेती |”
बाबी, नेनाकेँ दुनू हाथसँ अपन पाँजमे भरैत – “हमर नेना कतेक बुधियार भऽ गेलै, केकरो नजरि नै लगेए | अहाँक माए कोनो आजी गुजी थोरे रहथि जे ओ आजी गुजी तरेगन बनति, ओ देखू ओ—ओ सभसँ बेसी चमचमाइत तरेगन, ओ अहींक माए छथि |  
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जगदानन्द झा 'मनु'