Thursday, April 12, 2012

समैक बरबादी :: जगदीश मण्‍डल


समैक बरबादी

एकटा बेवसायी खि‍स्‍सा सुनलक जे राजा परि‍क्षित एक्के सप्ताह भागवत सुनि ज्ञानवान भऽ गेल छलाह। तँए हमहूँ किएक ने भऽ सकै छी। ओ कथावाचक भँजियबए लगलाह। कथावाचक भेटलै। दुनू गोटे माने कथोवाचक आ बेवसायियो अपन-अपन लाभक फेर‍मे छलाह। कथावाचक सोचथि‍ जे मालदार सुनिनिहार भेटल आ बेवसायी सोचथि‍ जे जिनगी भरि बइमानी कऽ बहुत धन अरजलौं आबो मरै बेर किछु ज्ञान अरजि ली जइसँ मुक्ति हएत।
कथा शुरू भेल। सप्ताह भरि कथा चलल। सप्ताह बीतलापर बेवसायी कथावाचक- व्यास जीकेँ कहलकनि- अहाँ नीक-नहाँति कथा नै सुनेलौं हमरा ज्ञान कहाँ भेल? दछिना नै देब।
बेवसायीक बात सुनि व्यासजी कहलखिन- अहाँक धि‍यान सदिखन पाइ कमाइ दिस रहैए तँ ज्ञान केना हएत?”
दुनू एक-दोसरकेँ दोख लगबए लगलाह। कि‍यो अपन गल्ती मानैले तैयारे नै। दुनूक बीच पकड़ा-पकड़ी होइत पटका-पटकी हुअ लगल। तखने एकटा विचारवान व्यक्ति रास्तासँ गुजरैत रहथि। ओ देखलखिन। लगमे जा दुनू गोटेकेँ झगड़ा छोड़बैत पुछलखिन। दुनू गोटे अपन-अपन बात ओइ‍ व्यक्तिकेँ कहलक। दुनूक बात सुनि ओ व्यक्ति दुनूक हाथ-पएर बान्हि कहलखिन- आब अहाँ दुनू गोटे एक-दोसरक बान्ह खोलू।
बान्हल हाथसँ केना खुलैत, बन्‍हन नै खुलल। तखन ओ निर्णए दैत कहलखिन- दुनू गोटेक मन कतौ और छल तँए सफल नै भेलौं। सप्ताह भरिक समए दुनूक गेल तँए अपन-अपन घाटा उठा घर जाउ। एकात्म भेने बिना आध्यात्मिक उद्देश्यक पूर्ति नै होइ छै

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