Thursday, April 12, 2012

आश्रम नै स्वभाव बदली :: जगदीश मण्‍डल


आश्रम नै स्वभाव बदली

एकटा युवक उद्धत स्वभावक छल। बात-बातमे खिसिया कऽ आगि-अंगोड़ा भऽ जाइत। जँ कि‍यो बुझबै-सुझबै छलै तँ ओ घर छोड़ि संयासी बनैक धमकी दइ छलै। युवकसँ परिवारक सभ परेशान रहैत। एक दिन पिता खिसिया कऽ संयासी बनैले कहि देलक।
घरसँ किछुऐ दूर हटि संयासीक आश्रम छलै। जे ओकरा बुझल छलैक। घरसँ निकलि युवक सोझे संयासीक आश्रम पहुँचि‍ गेल। आश्रमक संचालक ओइ युवकक उदंडतासँ परिचित छलाह। युवककेँ आश्रममे पहुँचते, संचालक रास्तापर अनै दुआरे पुचकारि कऽ लगमे बैसाए वि‍चार पुछलखि‍न। ओ युवक संयासक दीक्षा लइक विचार व्यक्त केलक। दोसर दिन दीक्षा दइक आश्वासन संचालक दऽ देलखिन।
दीक्षाक विधानमे पहिल कर्म छल गोसाँइ उगैसँ पहिने समीपक धारमे नहा कऽ एनाइ। आलसी प्रवृत्ति आ जाड़सँ डरैबला युवककेँ ई आदेश खूब अखड़लै। मुदा करैत की? निअम पालन तँ करए पड़तै।
कपड़ाकेँ देवालक खूँटीपर टांगि युवक नहाइले गेल। जखन युवक नहाइले गेल आकि संचालक कपड़ाकेँ चिरी-चोंट फाड़ि देलक। नहा कऽ थरथराइत युवक आएल तँ देखलक। तामसे आरो थरथराए लगल। मुदा करैत की?
दीक्षाक मुहूर्त्त संचालक सँझुका बनौलक। ताधरि मात्र किछु फल-फलहरी खाएब छलैक। तँए ओइ युवकक लेल नून मिलाओल करैला परोसि क थारीमे देल गेलै। एक तँ करैला ओहिना तीत दोसर छूच्‍छे। कंठसँ निच्चाँ युवककेँ उतरबे ने करए।
भोरमे उठब, जाड़मे नहाएब, फाटल-चीटल कपड़ा पहिरब आ तइपर सँ तीत करैला खाएब। युवक खिन्न हुअए लगल। संचालक सभ बुझथि‍। युवककेँ बजा संचालक कहलखि‍न- संयासी बनब कोनो खेल नै छिऐक। ऐ दिशामे बढ़निहारकेँ डेग-डेगपर मनकेँ मारए पड़ै छै। परिस्थितिसँ ताल-मेल बैसाए, संयम बरति‍, अनुशासनक पालन करए पड़ै छै। तखन कि‍यो संयासी बनैत अछि।
भरि दिन युवक अपन प्रस्तावपर सोचैत-वि‍‍चारैत रहल। तेसर पहर अबैत-अबैत ओ पुनः घुमि‍ कऽ घर आबि गेल। संयम साधना आ मनोनिग्रहक नामे तँ संयास थिक। जे घरोपर रहि लोक पालन क सकैत अछि।
स्वभाव बदलने वातावरणो बदलि जाइ छै

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