Thursday, April 12, 2012

ज्योति‍ :: जगदीश मण्‍डल


ज्योति

जनक और याज्ञवल्क्यक बीच ज्ञानक चरचा चलैत छल। जनक पुछलखिन- सुर्यास्त भेलापर -सुर्य डुमलापर- अन्हारक सघन वनमे रास्ता केना ताकल जाए?”
जनकक प्रश्न सुनि मुस्कुराइत याज्ञवल्क्य उत्तर देलखिन- तरेगन रास्ता बता सकैत।
याज्ञवल्क्यक उत्तरसँ असन्तुष्‍ठ होइत जनक पुछलखिन- अगर मेघौन होय? संगे दीपकक प्रकाश सेहो नै उपलब्ध होय, तखन?”
जनकक प्रश्नक गंभीरताकेँ बुझैत याज्ञवल्क्य कहलखिन- अपना सुझि-बुझिक सहारा लेबाक चाही।
विवेकक प्रकाश हर मनुखमे होइत छैक। जे कहियो नै बुझाइत। हे राजन, ओइ सुतल विवेककेँ जगाएबे ऋृषि समुदायिक पवित्र कर्तव्य छी।

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