ज्योति
जनक और याज्ञवल्क्यक बीच ज्ञानक चरचा चलैत छल। जनक पुछलखिन-
“सुर्यास्त भेलापर -सुर्य डुमलापर-
अन्हारक सघन वनमे रास्ता केना ताकल जाए?”
जनकक प्रश्न सुनि मुस्कुराइत याज्ञवल्क्य उत्तर देलखिन-
“तरेगन रास्ता बता सकैत।”
याज्ञवल्क्यक उत्तरसँ असन्तुष्ठ होइत जनक पुछलखिन- “अगर मेघौन होय? संगे दीपकक प्रकाश सेहो नै उपलब्ध होय, तखन?”
जनकक प्रश्नक गंभीरताकेँ बुझैत याज्ञवल्क्य कहलखिन- “अपना सुझि-बुझिक सहारा लेबाक चाही।”
विवेकक
प्रकाश हर मनुखमे होइत छैक। जे कहियो नै बुझाइत।
हे राजन, ओइ सुतल विवेककेँ जगाएबे ऋृषि समुदायिक पवित्र कर्तव्य छी।
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