अनंत
“हरि अनंत हरि कथा अनंता” –तुलसी
एक दिन भगवान बुद्ध आनंदक संग एकटा सघन वनसँ गुजरैत रहथि।
रास्तामे दुनू गोटेक बीच ज्ञानक चर्च चलैत छल। आनंद पुछलखिन- “देव, अपने तँ ज्ञानक भंडार छिऐ।
अपने जे जनै छी ओ हमरा बुझा देलौं?”
आनंदक बात सुनि उलटि कऽ बुद्धदेव पुछलखिन- “ऐ जंगलक जमीनपर केत्ते सुखल पात
पड़ल छै, जइ गाछक निच्चाँमे ठाढ़ छी ओइ गाछमे केत्ते सुखल पात लागल छै? आ अपना सबहक पएरक निच्चाँ कते
पड़ल छै। सभ मिला कऽ कत्ते हएत?”
वुद्धदेवक
प्रश्नसँ आनंद निरुत्तर भऽ गेलाह। आनंदकेँ उत्तर नै दैत देखि
तथागत कहलखिन- “ज्ञानक विस्तार ओते अछि जते ऐ वन प्रदेशमे सुखल पातक परिवार।
अखन धरि हमहूँ एतबे बुझलौंहेँ जे जते वृक्षक ऊपर सुखल पात अछि। मुदा पएरक निच्चाँ जे अछि ओ हमहूँ ने बुझै
छी।”
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