Wednesday, April 11, 2012

बुझैक ढंग :: जगदीश मण्‍डल


बुझैक ढंग

एकटा यात्री वृन्दावन विदा भेल। किछु दूर गेलापर रास्ताक बगलमे मीलक पत्थरपर नजरि पड़लै। ओइ मीलक पत्थरमे वृन्दावनक दूरी आ दिशा लिखल छलै। ओ यात्री ओतै अटकि बैस रहल आ बाजए लगल- पाथरक अंकन तँ गल्ती नै भऽ सकैत अछि किएक तँ विश्वासी लोकक लिखल छिऐक। वृन्दावन तँ आबिये गेल छी, आगू बढ़ैक की प्रयोजन?”
थोड़े कालक बाद एकटा बुझनिहार आदमी ओइ रस्ते कतौ जाइत रहथि तँ सुनलखिन। मने-मन खूब हँसलथि। कनी-काल ठाढ़ भऽ हँसैत ओइ यात्रीकेँ कहलखिन- पाथरपर सिरिफ संकेत मात्र अछि। ऐठामसँ वृन्दावन बहुत दूर अछि। जँ अहाँ ओतए जाए चाहै छी तँ तुरन्‍ते सभ सामान समेटि‍ विदा भऽ जाउ नै तँ नै पहुँचब
भोला-भाला यात्री अपन भूल मानि विदा भेल।
एहेन बहुतो लोक छथि जे शास्त्रो पढ़ैत छथि, शास्त्रीय बातो सुनै छथि मुदा धरम धारण करैक रास्ता पकड़बे ने करै छथि तखन ओ धर्म केना बुझथिन। जे धर्म की छि‍ऐक?

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