Thursday, April 12, 2012

सद्भाव :: जगदीश मण्‍डल


सद्भाव

अपन शिष्यक संग महात्मा इसा कतौ जाइत रहथि। साँझ पड़ि गेलै। राति बितबए लेल एकठाम ठहरि गेलाह। संगमे पाँचेटा रोटी खाइले छलनि। रोटीक हिसाबे खेनिहार अधिक तँए सभकेँ पेट भरब कठिन छलैक। अपनामे शिष्य सभ यएह गप-सप्‍प करैत रहए। इसो सुनलखिन। मुस्कुराइत इसा कहलखिन- सभ रोटीकेँ टुकड़ी-टुकड़ी तोड़ि एकठाम कऽ लिअ आ चारू भागसँ सभ बैस, खाउ। जइसँ सभकेँ एक रंग भोजन भेट जाएत
महात्मा इसाक विचार मानि, सभ सएह केलक। संतोषक जन्म सबहक हृदैमे भऽ गेल। सभ कि‍यो खाएब शुरू केलक। रोटी सठति‍-सठति‍ सबहक पेटो भरि गेलै। तखन एकटा शिष्य बाजल- ई गुरुदेवक चमत्कार छियनि।
शिष्यक बात सुनि इसा कहलखिन- ई अहाँ लोकनिक सद्भावक सहकार थिक नै कि‍ चमत्कार। अगर अहाँ सभ अपनामे छीना-झपटी करितौं तँ ई संभव नै होइतए। जइठाम सद्भावसँ परिवारक संबंध होइ छै तइठाम एहि‍ना प्रभुक अयाचित सहयोग भेटैत अछि।

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