संगीक महत
एकटा गाछ लग एकटा फूलक लत्ती जनमि कऽ लटपटाइत बढ़ैत गाछक फुनगी धरि
पहुँचि गेल। गाछक आश्रए पाबि ओ लत्ती फुलाए-फड़ए लगल। लत्तीक फड़-फूल देखि गाछक मनमे
द्वेष जगए लगलै जे हमरे बले ई लत्ती एत्ते बढ़ि, फड़ै-फुलाइत अछि। जँ हम सहारा नै
दैतिऐ तँ कहिया-कतए ने माल-जाल चरि नष्ट कऽ देने रहितै। लत्तीपर रोब जमबैत
गाछ कहलकै- “तोरा हम जे आदेश दियौ से तूँ कर।
नै तँ मारि कऽ भगा देबौ।”
वृक्ष लत्तीकेँ कहिते छल आकि दूटा बटोही ओइ रस्ते जाइत
छल। लत्तीसँ सुशोभित गाछ देखि एकटा राही दोसरकेँ कहलक- “संगी, ऐ वृक्षकेँ दखियौ जे कत्ते
सुन्दर लगैए। निच्चाँमे कत्ते-शीतल केने अछि। ऐठाम बैस बीड़ी-तमाकुल कऽ लिअ, तखन आगू
बढ़ब।”
लत्ती संग अपन महत सुनि गाछक रोब समाप्त भऽ गेलै। ओइ दिनसँ दुनू मिलि
प्रेमसँ रहए लगल।
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