समर्पण
समुद्रसँ मिलए लेल धार विदा भेल। रास्तामे बलुआही इलाका
पड़ैत छल। जुआनीक जोशमे धार विदा तँ भेल मुदा रास्ताक बालु आगू बढ़ै ने दैत छलैक। सभ
पानि सोंखि लैत। धारक सपना टुटए लगलैक। मुदा तैयो साहस कऽ धार अपन उद्गम स्रोतसँ जल
लऽ लऽ दौग कऽ आगू बढ़ए चाहैत छल मुदा धारक सभ पानि बालु सोंखि लैत छलै। जइसँ धार आगू
बढ़ैमे असफल भऽ जाइत छल। झुंझला कऽ निराश भऽ धार बालुकेँ पुछलकै- “समुद्रमे मिलैक हमर सपना अहाँ
नै पूर हुअए देब?”
बालु उत्तर देलकै- “बलुआही इलाका होइत जाएब संभव नै अछि। अगर अहाँ अपना प्रियतमसँ
मिलए चाहैत छी तँ अपन सम्पति बादलकेँ सौंपि दियौक, तखने पहुँचि पाएब।”
धारकेँ
अपन अस्तित्वकेँ समाप्त करैक अद्भुत समरपनक साहस हेबे ने करैत। मुदा बालुक विचारमे
गंभीरता छलैक। किछु काल विचारि धार समरपनक लेल तैयार भऽ गेल। तखन ओ पानिक बुन्नक रूपमे
अपनाकेँ बदलि बादलक सवारीपर चढ़ि समुद्रमे जा मिलल।
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