Thursday, April 12, 2012

सद्गृहस्‍त :: जगदीश मण्‍डल


सद्गृहस्‍त

एकटा गृहस्त छलाह। संयमसँ जीवन-यापन करैत छलाह। परिवारकेँ सुसंस्कारी बनबैमे सदिखन लागल रहथि‍। नीतिपूर्वक आजीविकासँ जिनगी बितबथि‍। परिवारक काज आ खर्चसँ जे समए आ धन बचैत रहनि‍ ओ परमार्थमे लगबथि‍। ओ गृहस्त कहियो तपोभूमि नै गेलाह मुदा घरेमे तपोवन बना लेने छलाह। देवतो प्रसन्न रहै छलखि‍न।
एक दिन गृहस्तक क्रियासँ खुशी भऽ इन्द्र आबि वर मांगैले कहलखिन। गृहस्त असमंजसमे पड़ि गेलाह जे की मंगबनि। जखन असंतोषे नै तखन अभाबे कथीक? स्वाभिमानी गमौलाक उपरान्ते कि‍यो ककरोसँ किछु पबैत अछि। ई बात सोचि गृहस्त मने-मन विचारए लगलाह जे जइसँ ऋृणो-भार नै हुअए आ देवतो अपमान नै बुझथि‍ से करबाक अछि‍। बड़ी काल धरि सोचैत-विचारैत गृहस्त इन्‍द्रसँ मंगलकनि- हमर छाया जतए पड़ै ओतए कल्याणक बरखा होय।
इन्द्र वरदान तँ दऽ देलखिन मुदा अचंभित भऽ गृहस्तसँ पुछलखिन- हाथ रखलापर कल्याणो होइ छै आ आनंदो, प्रशंसो आ प्रत्युपकारक संभवनो होइ छै। मुदा छायासँ कल्याण भेलोपर लाभसँ बंचित रहए पड़ै छै। तखन एहेन विचित्र वर किएक मंगलौं?”
मुस्कुराइत गृहस्त कहलखिन- देव, सोझाबलाक कल्याण भेने अपनामे अहंकार पनपैत अछि। जइसँ साधनामे बाधा उपस्थिति होइए। छाया केकरापर पड़लै, के कत्ते लाभान्वित भेलै, ई पता नै लागब जीवनक लेल श्रेयस्कर थिक।
साधनाक यएह रूप पैघ होइ छै‍। एहने क्रमक प्रगतिक रास्तापर चलैत-चलैत व्यक्ति महामानव बनैत अछि।

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