विद्वताक मद
एक दिन महाकवि माघ राजा भोजक संग वन-विहार कऽ घुमल अबैत
रहथि। रास्तामे एकटा झोपड़ी देखलखिन। ओइ झोपड़ीमे एकटा वृद्धा टोकरी माने तकली कटैत रहथि।
ओइ वृद्धासँ माघ पुछलखिन- “ई रास्ता कतए जाइत अछि?”
वृद्धा माघकेँ चीन्हि गेलीह। ओ हँसैत उत्तर देलखिन- “वत्स, रास्ता तँ कतौ नै जाइत अछि। जाइत अछि ओइपर चलैबला
राही। अहाँ सभ के छी?”
माघ- “हम सभ यात्री छी।”
मुस्कुराइत वृद्धा बाजलि- “तात्, यात्री तँ सुरुज आ चान दुइये
टा छथि। जे दिन-राति चलैत रहै छथि। सच-सच कहू जे अहाँ के छी?”
थोड़े चिन्तित होइत माघ कहलखिन- “माँ, हम क्षणभंगुर आदमी छी।”
थोड़े गंभीर होइत पुनः वृद्धा कहलकनि- “बेटा, यौवन आ धने टा क्षणभंगुर
होइए। पुराण कहैत अछि जे ऐ दुनूक बिसवास नै करी।”
माघक चिन्ता आरो बढ़लनि। रोषमे कहलखिन- “हम राजा छी।”
हुनका मनमे
एलनि जे राजाक नाओं लेलासँ ओ सहमि जेतीह। मुदा ओ वृद्धा निर्भीक भऽ उत्तर देलकनि- “नै भाय,
अहाँ राजा केना भऽ सकै छी? शास्त्र
तँ दुइये टा राजा- “यम आ इन्द्र मानने अछि।”
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