Thursday, April 12, 2012

विद्वताक मद :: जगदीश मण्‍डल


विद्वताक मद

एक दिन महाकवि माघ राजा भोजक संग वन-विहार कऽ घुमल अबैत रहथि। रास्तामे एकटा झोपड़ी देखलखिन। ओइ झोपड़ीमे एकटा वृद्धा टोकरी माने तकली कटैत रहथि। ओइ वृद्धासँ माघ पुछलखिन- ई रास्ता कतए जाइत अछि?”
वृद्धा माघकेँ चीन्हि गेलीह। ओ हँसैत उत्तर देलखिन- वत्स, रास्ता तँ कतौ नै जाइत अछि। जाइत अछि ओइपर चलैबला राही। अहाँ सभ के छी?”
माघ- हम सभ यात्री छी।
मुस्कुराइत वृद्धा बाजलि- तात्, यात्री तँ सुरुज आ चान दुइये टा छथि। जे दिन-राति चलैत रहै छथि। सच-सच कहू जे अहाँ के छी?”
थोड़े चिन्तित होइत माघ कहलखिन- माँ, हम क्षणभंगुर आदमी छी।
थोड़े गंभीर होइत पुनः वृद्धा कहलकनि- बेटा, यौवन आ धने टा क्षणभंगुर होइए। पुराण कहैत अछि जे ऐ दुनूक बिसवास नै करी।
माघक चिन्ता आरो बढ़लनि। रोषमे कहलखिन- हम राजा छी।
हुनका मनमे एलनि जे राजाक नाओं लेलासँ ओ सहमि जेतीह। मुदा ओ वृद्धा निर्भीक भऽ उत्तर देलकनि- नै भाय, अहाँ राजा केना भऽ सकै छी? शास्त्र तँ दुइये टा राजा- यम आ इन्द्र मानने अछि।

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