परिष्कार
गुरुकुलमे विद्याध्ययन सभ जाति, सभ वर्ण आ सभ समुदायक
लेल हितकारी अछि। अगर जँ किनको अपन पैतृक बेवसाय करबाक होन्हि, तिनको पैघ उपलब्धिक
लेल संस्कारक शिक्षाक ग्रहन अत्यन्त अनिवार्य अछि।
एक गाममे क्षत्रिय आ वैश्य रहै छल। ब्राह्मणक बालक तँ
गुरुकुल पढ़ैले चलि गेलाह। दुनूक -क्षत्रियो आ वैश्योक- मनमे छल जे हम योद्धा बनब तँ
हम वणिक। अनेरे विद्याध्ययनमे समए किअए लगाएब। मुदा जखन कनी असथिर भऽ सोचलक तँ अपनापर
शंका जरूर भेलै। मनमे खुट-खुटी एलै। मने-मन सोचलक जे से नै तँ कुल पुरोहितसँ किअए ने पूछि
लियनि। दुनू जा कऽ पुरोहितसँ पुछलकनि। कुल पुरोहित उत्तर देलखिन- “ब्रह्मविद्याक तात्पर्य संयासी
बनि भीख मांगब नै होइत। ओ जीवनक अंतिम भागमे अधिकारी व्यक्तिक द्वारा ग्रहण कएल
जाइत छै। ब्रह्विमद्याक प्रयोजन गुण, कर्म, स्वभावक परिष्कार करब होइ छै। जे सभ स्तरक प्रगतिक लेल आवश्यक
अछि। क्षत्रिय आ वैश्य जँ ओइ विद्याकेँ ग्रहण करत तँ अपन-अपन जिनगीक कार्य
क्षेत्रमे अधिक सफल आ सुन्दर ढंगसँ सम्पादन करत।”
प्राचीनकालमे गुरुकुलमे, कठिनसँ कठिन कार्यक भार छात्रकेँ
दैल जाइत छल। जइसँ भारीसँ भारी काज करबाक अभ्यास बनैत छलैक।
कुल पुरोहितक परामर्श मानि ओहो दुनू -क्षत्रिय और बैश्य-
अपन-अपन बालककेँ गुरुकुल भेजब शुरू केलक।
गुरुकुलसँ अध्ययन कऽ लौटलापर ओहो अपन काजकेँ, बिनु अध्ययन
केलहाक तुलनामे अधिक सफल भेल।
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