Thursday, April 12, 2012

तप :: जगदीश मण्‍डल


तप

श्रमे ओ देवता छी जे सभ सिद्धिक स्वामी छी। आयुष्यकेँ पूर्वाद्धेमे एकर सम्पादनक लेल विधाता मनुखकेँ शक्ति सम्पन्न बना दैत छथिन। जखने एकर -श्रमक- उपेक्षा होइत तखने समाज अबेवस्थित हुअए लगैत।
राजा बि‍राल मुनि बैवस्वतकेँ प्रणाम कऽ चुपचाप बैस गेलाह। सूक्ष्मदर्शी गुरु -बैवस्वत- बूझि गेलखिन जे कोनो गंभीर चिन्तामे बि‍राल पड़ल छथि।
पुछलखिन- बि‍राल, आइ अहाँ अशान्त जकाँ बूझि पड़ै छी। कथीक चिन्ता अछि से हमरो कहू?”
अपन अन्तर्वेदनाकेँ प्रगट करैत बि‍राल कहलखिन- देव, नै जानि किएक प्रजाजन अशान्त छथि। सभ कियो धर्म आ शान्तिसँ विमुख भेल जा रहल छथि। जइसँ धन-धान्यक अभाव आ प्रेम-भाव टूटि रहल अछि। अपराध वृत्ति बढ़ि रहल अछि।
बि‍रालक विचार धि‍यानसँ सुनि बैवस्वत कहलखिन- जइ देशमे लोक मेहनति‍सँ देह चोराओत, श्रमकेँ सम्मान जनक स्थान नै देत, ओइठाम केना समृद्धि भऽ सकैत अछि।
श्रम ओहन तप छी जइसँ समाजक सभ दोष मेटा जाइत अछि। तँए, श्रमकेँ साधना बूझि सभकेँ ऐमे लगि जेबाक चाही। जइ परिवार, समाज आ देशमे श्रमकेँ जते महत देल जाएत, ओ ओते उन्नति करत।

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