उल्टा अर्थ
शिक्षा केहेन देल जाए, की देल जाए ई गंभीर प्रश्न छी।
एक गोटेकेँ दूटा संतान छल। एक बेटा दोसर बेटी। सम्पन्न
परिवार। दुनू संतानकेँ बच्चेसँ सुख-सुविधा भेटैत रहल। जइसँ वयस्क होइत-होइत अनेको व्यसनक
आदति लगि गेलै।
अपन दुनू बच्चाकेँ बिगड़ल देखि पिताक मनमे चिन्ता भेलै।
भीतरे-भीतर सोगाए लगल। जइसँ रोगी जकाँ खिन्न हुअए लगल। एक दिन एकटा मित्र पुछलकनि-
“मित्र, अहाँ दिनानुदिन खिन्न किएक
भेल जा रहल छी?”
मित्रक बात सुनि ओ उत्तर देलक- “मित्र, सभ किछु अछैतो दुनू बच्चा
बिगड़ि गेल अछि। वएह चिन्ता मनकेँ पकड़ने अछि।”
दुनू गोटे विचारि तँइ केलक जे दुनू बच्चाकेँ एक
मास महाभारतक कथा, जइमे धर्म आ सदाचारक सभ तत्व मौजूद अछि, सुनाओल जाए। सएह केलक।
मास दिन महाभारतक कथा सुनलाक बाद दुनू आरो बिगड़ि गेल।
बेटा अपना दोस्तकेँ कहलक- “भगवान श्री कृष्णकेँ सोलह हजार
रानी छलनि तँ दस-बीससँ संबंध राखब केना अधलाह हएत?”
तहिना बेटियो अपन बहिनाकेँ कहलक- “कुन्तीकेँ कुमारियेमे बेटा भेलै
जे श्रेष्ठ नारीक श्रेणीमे छथि तखन हम कोन अधला काज करै छी।”
आब प्रश्न उठैत जे एना किएक भेल?
अखन धरि
जे कथा श्रवणक बेवहार अछि ओ अपूर्ण अछि। दृष्टिकोण बदलए लेल एहेन प्रभावी वातावरण बनबए
पड़त जइमे कथाक चर्च आ क्रियामे समुचित समन्वय हेबाक चाहिये। तखने दृष्टिकोण बदलत आ
समुचित उपयोगी बनत।
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