पत्नीक अधिकार
गृहस्ताश्रम ओहन आश्रम होइत जइमे आत्मसंयम, पारस्परिक सद्भाव आ सद्प्रवृत्तिक अभ्यास आसानीसँ कएल जा सकैत अछि। एक दिन हजरत उमरसँ भेँट करए एक आदमी आएल। थोड़े काल बैसल तँ उमरक पत्नीकेँ जोर-जोरसँ उमरपर बजैत सुनलक। उमर चुपचाप सुनैत। किछु उत्तर नै दैत। ओइ आदमीकेँ बड़ छगुन्ता लगलै जे पत्नी यत्र-कुत्र कहि रहल छन्हि मुदा किछुुुु उत्तर उमर नै दैत छथिन। ओइ आदमीकेँ नै रहल गेलै। ओ उमरकेँ पुछलकनि- “अपनेक पत्नी यत्र-कुत्र कहि रहल छथि मुदा अहाँ मुड़ियो उठा कऽ ओमहर नै तकै छी?”
गंभीर स्वरमे उमर जबाब देलखिन- “भाय, ओ हमर मैल-कुचैल कपड़ा खिंचैत छथि, खाना बनबै छथि, सेवा करै छथि आ सभसँ पैघ बात जे हमरा पाप करैसँ सेहो बँचबै छथि। तखन जँ ओ बिगड़ि कऽ दू-चारिटा बाते कहै छथि तँ की हुनका एतबो अधिकार नै छन्हि।”
No comments:
Post a Comment