Thursday, April 12, 2012

रत्न गमेवाक दुख :: जगदीश मण्‍डल


रत्न गमेवाक दुख

एकटा गोताखोर कएक दिनसँ असफल होइत आएल छल। भरि-भरि दिन परिश्रम करै छल मुदा किछु हाथ नै लगै। जइसँ परिवार चलब कठिन भऽ गेलै। आन काज करैक लूरि रहबे ने करै जे करैत। भोरे घरसँ नि‍कलि‍ नदीक महारपर जा बैस रत्नक आशमे टक-टक पानि‍ दिस तकैत रहै छल। निराश भ गोताखोर मनमे विचारलक जे आइ ऐ काजक आखि‍री दिन छी। जँ आइ किछु नै भेटत तँ काल्हिसँ छोड़ि देब। जाल ल नदीक महारपर बैस, मने-मन भगवानसँ कहए लगलनि- अगर अहाँ मदति नै करब तँ हम जीब केना?”
भगवानसँ प्रार्थना क गोताखोर पानिमे पैस डुमकी लगौलक। एकटा पोटरी भेटलै। पोटरी लेने ऊपर भेल। किनछरिमे बैस पोटरी खोललक। छोट-छोट पाथर ओइ पोटरीमे। पाथर देखि‍ गोताखोर निराश भ गेल। मनमे क्रोधो उठलै। एकाएकी ओइ पाथरकेँ पानिमे फेकए लगल। पाथरो फेकैत आ मने-मन अपना भाग्‍योकेँ कोसैत। फेकैत-फेकैत एकटा पाथर बँचलै। ओइ पाथरकेँ जखन फेकए लगल आकि ओइपर नजरि पड़लै। पाथर चमकैत रहए। ओ नीलम पाथर रहए। गोताखोर चीन्हि गेल। मुदा ताघरि तँ सभटा फेकि‍ देने छल। अपसोच करए लगल मुदा सभ तँ पानिमे चलि गेल छलै तँए अपसोच कइये कऽ की‍ हेतै। अपसोच करैत देखि‍ भगवान चिड़ै बनि आबि कहए लगलखिन- ऐ गोताखोर, सिर्फ तोँहींटा एहेन अभागल नै छेँ, ढेरो अछि जे जीवन रूपी रत्न राशिकेँ एहिना गमबैत अछि। जो, जएह बँचल छौ ओकरे बेचि‍ क गुजर कर ग। मुदा ज्ञान बढ़ा। जइसँ धनो पबैक लूरि भऽ जेतौ आ मनुखो बनि जीमे।

No comments:

Post a Comment