भद्रपुरुष
एक दिन एकटा वृद्धा कोठीसँ निकलैत एकटा भद्र-पुरुषकेँ
कहलखिन- “अहाँ, ऐ कोठीक मालिकसँ कनी भेँट करा दिअ?”
ओ भद्र-पुरुष कहलखिन- “कोन काज अछि कहू?”
वृद्धा- “हमरा बेटीक बिआह छी। तीन साए रूपैयाक खगता अछि। अगर रूपैया
नै हएत तँ बिआह रूकि जेतै।”
मुड़ी डोलबैत कहलकनि- “चलू।”
ओ भद्र-पुरुष अपन कारमे वृद्धाकेँ बैसाए लऽ गेलखिन। थोड़ेक दूर गेलापर कारसँ
उतरि सामनेक मकानमे प्रवेश केलनि। वृद्धोकेँ संगे लेने गेलखिन। भीतर गेलापर वृद्धाकेँ
ओसारपर बैसाए अपने कोठरीमे गेलाह। कोठरीमे जा पाँच साए रूपैया नोकरकेँ दऽ ओइ वृद्धाकेँ दऽ अबैले कहलखिन। पाँचो सौ रूपैया
लेने आबि नोकर वृद्धाकेँ दैत कहलक- “भाय, पाँच सौ रूपैया अछि। तीन सएमे बेटीक बिआह सम्हारि लेब
आ दू सएसँ कोनो धंधा शुरू कऽ लेब। जइसँ आगूक जिनगी आसानीसँ चलत।”
रूपैया हाथमे लऽ वृद्धा ओइ नोकरक मुँह दिस
देखैत कहलक- “भाय, कोठीक मालिक कहाँ भेटलथि?”
नोकर- “जिनका संग अहाँ कारमे एलौं वएह ऐ कोठिक मालिक- बाबू चितरंजन दास छथि।”
जइ आदमीक लेल सौंसे समाज परिवार होइत, जे अनको दुखकेँ अपन दुख
बूझि जीबैक प्रेरणा दैत वएह तँ भद्र-पुरुष होइत।
No comments:
Post a Comment