Thursday, April 12, 2012

भद्रपुरुष :: जगदीश मण्‍डल


भद्रपुरुष

एक दिन एकटा वृद्धा कोठीसँ निकलैत एकटा भद्र-पुरुषकेँ कहलखिन- अहाँ, ऐ कोठीक मालिकसँ कनी भेँट करा दिअ?”
ओ भद्र-पुरुष कहलखिन- कोन काज अछि कहू?”
वृद्धा- हमरा बेटीक बि‍आह छी। तीन साए रूपैयाक खगता अछि। अगर रूपैया नै हएत तँ बि‍आह रूकि जेतै
मुड़ी डोलबैत कहलकनि‍- चलू।
ओ भद्र-पुरुष अपन कारमे वृद्धाकेँ बैसाए ल गेलखिन। थोड़ेक दूर गेलापर कारसँ उतरि सामनेक मकानमे प्रवेश केलनि। वृद्धोकेँ संगे लेने गेलखिन। भीतर गेलापर वृद्धाकेँ ओसारपर बैसाए अपने कोठरीमे गेलाह। कोठरीमे जा पाँच साए रूपैया नोकरकेँ द ओइ वृद्धाकेँ द अबैले कहलखिन। पाँचो सौ रूपैया लेने आबि नोकर वृद्धाकेँ दैत कहलक- भाय, पाँच सौ रूपैया अछि। तीन सएमे बेटीक बि‍आह सम्हारि लेब आ दू सएसँ कोनो धंधा शुरू क लेब। जइसँ आगूक जिनगी आसानीसँ चलत।
रूपैया हाथमे ल वृद्धा ओइ नोकरक मुँह दिस देखैत कहलक- भाय, कोठीक मालिक कहाँ भेटलथि?”
नोकर- जि‍नका संग अहाँ कारमे एलौं वएह ऐ कोठिक मालिक- बाबू चितरंजन दास छथि।
जइ आदमीक लेल सौंसे समाज परिवार होइत, जे अनको दुखकेँ अपन दुख बूझि जीबैक प्रेरणा दैत वएह तँ भद्र-पुरुष होइत।

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