“बाबूक संगे खाएब”।-बुचिया बाजलि ।
“हे आब तूँ छोट नै छेँ, एम्हर बैस”। माए कहलन्हि ।
फेर भाए सभ खेनाइ खेलक आ आब बुचिया आ बुचिया माएक बेर आएल ।
तरकारी सठि जेकाँ गेल रहए, दूध तँ बाबू आ भाएकेँ मात्र भेटलैक ।
माए बुचियाकेँ सठल जेकाँ तरकारी लोहियामे सँ छोलनीसँ जेना –तेना निकालि कए देलन्हि आ अपने भात आ नून –तेल लए बैसलीह। दूधक बर्तनसँ दाढ़ी खखोड़ि कए बादमे बुचिया खेलक।
- ई खिस्सा सुनबैत मनोहर बजलाह जे हमरा सभ आब ई कऽ सकैत छी की ?
पहिने खेनाइ-पिनाइसँ लऽ कऽ पढ़नाइ-लिखनाइ धरि बेटीक संग अन्याय होइत रहए। अपाला-गार्गी-मैत्रेयीक समय तँ आब जा कऽ फेरसँ आएल अछि ।
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