Thursday, April 5, 2012

अमरनाथ- विहनि कथा- गिरगिट

गिरगिट

एसकरे रहथि। बाजार जाइले बरामदापर अएलाह तँ जेना लगलनि जे “भट” आबाज भेलैक। पहिने बाँहिपर गिरगिट खसलनि आ फेर नीचाँमे खसि पड़लैक। मरि गेलैक? नै, संचार भेलैक। ससरि कऽ देबालपर चल गेलैक। कटलकनि तँ ने! फेर भेलनि जे कटने रहितनि तँ बिसबिसाइत रहितनि। तथापि गिरगिट खसै छै तँ किछु होइ छै!...किछु होइ छैक? मरबाक पूर्व सूचना सेहो भऽ सकै छै। मन पाड़ऽ लगलाह, पंडित बाबा रटौने रहथिन- पतति यदि पल्ली...पतति यदि पल्ली...आगाँ मोन नै पड़लनि।...ओह, ई सभ पुरना बात भेलै। पएरपर कि कतहि खसै छै तँ धनक क्षति होइ छै। पीठपर कि माथपर तँ लोक मरि जाइये...ओह, फेर वएह पुरना बात! मोन पड़लनि गिरगिट खसै छलै तँ लोक गंगाजल छिटैत छल। आब लिअ, ई गंगाजल कतऽ सँ अनताह? देबालपर एक-दूटा गिरगिट रहै। ई चिन्हबाक प्रयास करऽ लगलाह जे कोन गिरगिट खसल रहनि। गिरगिटकेँ देखैत-देखैत लगलनि जे हिनकर मनमे गिरगिट ससरि रहल छनि।

(साभार विदेह विहनि कथा विशेषांक अंक ६७- www.videha.co.in)

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