Thursday, April 5, 2012

अमरनाथ- विहनि कथा- फोंफ

फोंफ

  “गै धोछिया खोल केबाड़ी! ...खोल, खोलै छैँ कि तोड़ि दियौ केबाड़ी।”, कहैत-कहैत लुढ़कि गेल। उठल। केबाड़ी खुजलैक। एकर मुँह भभकैत रहै। बाजल- “ला जे देबेँ दू मुट्ठी अन्न, से दे!...जल्दी कर, नै तँ ठोंठी दाबि देबै।”

कतेक झाड़-फूक भेलैक, टोना-टोटका करौलकैक मुदा एकर पीनाइ नै छुटलै। घरवालीक मन अपरतिभ भऽ गेलै। कहलकैक- “जे कमाइ छैँ से उड़ा लै छैँ! रोटी कतऽ सँ जुटतैक? ”

“गौ छुछनरिया, ला जएह छौह सएह ला। एक धारी माटिये ला, सएह भकसि लेबै।” भीतर गेलि। दालि गरम कएलक। छिपलीमे रोटी आ बाटीमे दालि लऽ कऽ आएलि। बाजलि- “जा, आब की करबै? मरदबा भुइयेँमे पड़ले-पड़ल फोंफ काटऽ लागल।”

(साभार विदेह विहनि कथा विशेषांक अंक ६७- www.videha.co.in)

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