फोंफ
“गै धोछिया खोल केबाड़ी! ...खोल, खोलै छैँ कि तोड़ि दियौ केबाड़ी।”, कहैत-कहैत लुढ़कि गेल। उठल। केबाड़ी खुजलैक। एकर मुँह भभकैत रहै। बाजल- “ला जे देबेँ दू मुट्ठी अन्न, से दे!...जल्दी कर, नै तँ ठोंठी दाबि देबै।”
कतेक झाड़-फूक भेलैक, टोना-टोटका करौलकैक मुदा एकर पीनाइ नै छुटलै। घरवालीक मन अपरतिभ भऽ गेलै। कहलकैक- “जे कमाइ छैँ से उड़ा लै छैँ! रोटी कतऽ सँ जुटतैक? ”
“गौ छुछनरिया, ला जएह छौह सएह ला। एक धारी माटिये ला, सएह भकसि लेबै।”
भीतर गेलि। दालि गरम कएलक। छिपलीमे रोटी आ बाटीमे दालि लऽ कऽ आएलि। बाजलि- “जा, आब की करबै? मरदबा भुइयेँमे पड़ले-पड़ल फोंफ काटऽ लागल।”
(साभार विदेह विहनि कथा विशेषांक अंक ६७- www.videha.co.in)
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