Friday, April 6, 2012

मानेश्वर मनुज- मानसरोवरक भूमिकाक प्रासंगिकता


मानसरोवरक भूमिकाक प्रासंगिकता
ओना तँ प्रेमचन्द सेहो अप्पन गुरु बंगलाक महान कथाकार शरतचन्द्रकेँ मानलन्हि, मुदा बंगलाक विभिन्न पत्र-पत्रिका कथा-चेतनाक हिसाबे प्रेमचन्दकेँ सर्वोपरि मानैत छथि। एहि बातमे कोनो संदेह नहि जे प्रेमचन्दक कथा साहित्य विश्वसाहित्यमे अप्पन समुचित स्थान रखैत अछि।
गाँधीजी रवीन्द्रनाथ टैगोरक समक्ष नतमस्तक भऽ जखन हुनका गुरु कहलकन्हि तखन रवीन्द्रनाथ टैगोर सेहो आह्लादपूर्वक हुनका बापू कहलकन्हि। प्रेमचन्द जे सम्मान बंगला साहित्यकेँ< देलन्हि ताहिसँ कनिको कम सम्मान बंगलाक साहित्यकार प्रेमचन्दकेँ नहि दऽ रहल छथि।

प्रेमचन्दक जे कथा सभ पाठ्यपुस्तकमे लागल अछि ताहिसँ हिन्दी आ मैथिली जगत पूर्णतः वाकिफ अछि, तकर अलावे समए-समएपर हिन्दीक पत्रिका सभ प्रेमचन्दक आनो कथा सभ प्रकाशित करैत रहैत अछि। एतेक सभ भेलाक बादो हिन्दी आ मैथिलीक आम पाठक की लेखको प्रेमचन्दसँ अनभिज्ञ भऽ रहल छथि, जाहि कारणेँ मैथिली की हिन्दियो साहित्य एको डेग आगाँ नहि बढ़ि रहल अछि।मानसरोवरक प्राकथनमे प्रेमचन्द भारतीय कथा साहित्यक गुढ़केँ कतेक गदिया कऽ पकड़ने छथि- देखल जा सकैत अछि आ हमरा लोकनि लीकसँ कतेक हटि गेल छी तकरो अनुमान कएल जा सकैत अछि। हिन्दीक कतेको पत्र अप्पन सम्पादकीयमे कहैत छल जे मैथिली पहिने अप्पन साहित्यकेँ मजगूत कऽ लिअए तखन सम्वैधानिक मान्यताक बात करए, मुदा मैथिलीक साहित्यकार लोकनि अपना हठपर अड़ल रहलथि।
रोजगारक नामपर दर-दर भटकैत मैथिलजन सभतरि अपमानित भऽ रहल छथि तकर किनको चिन्ता नहि मुदा अप्पन हठ कायम रखताह। साहित्य वा राजनीति एहन हल्लुक चीज नहि जे सत्यसँ अलग पैर राखि आडम्बरक बलपर सफलता प्राप्त कऽ लिअए। सौ चोर मसियौत अइ तँ सौ साधु सहोदर, ई परम सत्य अइ।
कथा साहित्य पाठकक सुन्दर भावनाक स्पर्श- मानसरोवरक प्राकक्थन-प्रेमचन्द- मैथिली रूपान्तर- मानेश्वर मनुज
एक आलोचक लिखलन्हि अछि जे इतिहासमे सभ किछु यथार्थ होइतो ओ असत्य अछि आ कथा साहित्यमे सभ किछु काल्पनिक होइतो ओ सत्य अछि। अइ कथनक आशय एकर सिवाय आओर की भऽ सकैत अछि जे इतिहास आदिसँ अन्त धरि हत्या, संग्राम आ धोखाक प्रदर्शन करैत अछि जे असुन्दर अछि तैँ असत्य अछि, लोभक क्रूरसँ क्रूर अहंकारक नीचसँ नीच, ईर्ष्याक अधमसँ अधम घटना सभ अहाँकेँ ओतऽ भेटत आ अहाँ सोचऽ लागब जे मनुष्य एतेक अमानुषिक अछि, थोड़ स्वार्थक लेल भाए-भाएक हत्या करऽ पर लागल अछि। बेटा बापक हत्या कऽ दैत अछि आ राजा असंख्य प्रजाक हत्या कऽ दैत अछि। एकरा पढ़ि कऽ मोनमे ग्लानि होइत अछि आनन्द नहि। आ जे आनन्द प्रदान नहि कऽ सकैत अछि ओ सुन्दर नहि भऽ सकैत अछि आ ओ सत्य सेहो नहि भऽ सकैत अछि।
जतऽ आनन्द अछि ओतै सत्य अछि। साहित्य काल्पनिक बस्तु अछि मुदा एकर प्रधान गुण अछि आनन्द प्रदान करब, आ एहि हेतु ओ सत्य अछि। मनुष्य जगतमे जे किछु सत्य आ सुन्दर पओलक अछि आ पाबि रहल अछि ओकरे साहित्य कहैत छैक आ गल्प सेहो साहित्यक एक भाग अछि।
मनुष्य जाति लेल मनुष्ये सभसँ विकट पहेली अछि। ओ स्वयं अपना समझमे नहि अबैत अछि। कोनो ने कोनो रूपमे ओ अपने आलोचना करैत रहैत अछि, अपने मनोरहस्य खोलल करैत अछि। मानव संस्कृतिक विकासे एहि लेल भेल अछि कि मनुष्य अपनाकेँ समझाबय आध्यात्म आ दर्शन जकाँ साहित्यो एहि खोजमे लागल अछि, अन्तर एतनी अछि कि ओ अइ उद्योगमे रसक मिश्रण कऽ ओकरा आनन्दप्रद बना दैत अछि, एहि लेल आध्यात्म आ दर्शन सिर्फ ज्ञानी लोकनिक लेल अछि, साहित्य मनुष्य मात्र लेल।
जेना हम ऊपर कहि गेल छी, गल्प आ आख्यायिका साहित्यक एक प्रधान अंग अछि। आइसँ नहि, आदिये कालसँ। हँ, आइ-काल्हुक आख्यायिका आ प्राचीनकालक आख्यायिकामे समयक गति आ रुचिक परिवर्तनसँ बहुत किछु अन्तर भेल अछि। प्राचीन आख्यायिका कुउतुहल प्रधान होइत छल आ आध्यात्म विषयक। उपनिषद आ महाभारतमे आध्यात्मिक रहस्यकेँ समझाबक लेल आख्यायिका सभक आश्रय लेल गेल अछि। “जातक”सेहो आख्यायिकाक सिवाय आओर की अछि? बाइबिलमे सेहो दृष्टान्त सभ आ आख्यायिका सभक द्वारे धर्म तत्व समझाएल गेल अछि। सत्य अइ रूपमे आबि कऽ साकार भऽ जाइत अछि आ तखने जनता ओकरा समझैत अछि आ ओकर व्यवहार करैत अछि। वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक-विश्लेषण आ जीवनक यथार्थ स्वभाविक चित्रणकेँ अप्पन ध्येय समझैत अछि। एहिमे कल्पनाक मात्रा कम, अनुभूतिक मात्रा अधिक होइत अछि, बल्कि अनुभूतिये रचनाशील भावनासँ अनुरंजित भऽ कऽ कथा बनि जाइत अछि, मगर ई समझब भूल होएत कि कथा जीवनक यथार्थ चित्र अछि। जीवनक चित्र तँ मनुष्य स्वयं भऽ सकैत अछि, मगर कथाक पात्र सभक सुख-दुःखसँ हम जतेक प्रभावित होइत छी ओतेक यथार्थ जीवनसँ नहि होइत छी, जावत तक ओ निजत्वक परिधिमे ने आबि जाए। कथा सभक पात्र सभमे हमरा एक्के-दू मिनटक परिचयमे निजत्व भऽ जाइत अछि आ हम ओकरा संग हँसऽ आ कानऽ लगैत छी, ओकर हर्ष आ विषाद हमर अप्पन हर्ष आ विषाद भऽ जाइत अछि, बल्कि कहानी पढ़ि कऽ ओ लोको कानैत आ हँसैत देखल जाइत अछि, जकरापर साधारणतः सुख-दुःखक कोनो असरि नहि पड़ैत अछि, जकर आँखि श्मशानमे या कब्रिस्तानमे सेहो सजग नहि होइत अछि, ओ लोक सेहो उपन्यासक मर्मस्पर्शी स्थल सभपर पहुँचि कऽ कानऽ लगैत अछि।
  शाइत एकर ईहो कारण होइक कि स्थूल प्राणी सूक्ष्म मनक ओतेक लग नहि पहुँच सकैत अछि जतेक कि कथाक सूक्ष्म चरित्रक। कथाक चरित्र सभ आ मनक बीचमे जड़ताक ई पर्दा नहि होइत अछि, जे एक मनुष्यक हृदयकेँ दोसर मनुष्यक हृदयसँ दूर रखैत अछि। आ अगर हम यथार्थकेँ हूबहू खीच कऽ राखि दी तँ ओहिमे कला कहाँ अछि। कला केवल यथार्थक नकलक नाम नहि अछि। कला देखाइत तँ यथार्थ अछि मुदा यथार्थ होइत नहि अछि। ओकर खूबी ई अछि कि ओ यथार्थ नहि होइतो यथार्थ लगैत अछिउ। एकर मापदण्ड सेहो जीवनक मापदण्डसँ अलग अछि, जीवनमे बहुधा हमर अंत ओही समय भऽ जाइत अछि जखन ओ वांछनीय नहि होइत अछि। जीवन ककरो दायी नहि अछि। ओकर सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरणमे कोनो क्रम कोनो सम्बन्ध ज्ञात नहि होइत अछि।
कमसँ कम मनुष्यक लेल ई अज्ञेय अछि, लेकिन कला-साहित्य मनुष्यक रचल जगत अछि आ परिमिति हेबाक कारण सम्पूर्णतः हमरा सामने आबि जाइत अछि आ जहाँ ओ हमर मानवो-न्याय-बुद्धि आ अनुभूतिक अतिक्रमण करैत पाओल जाइत अछि, हम ओकरा दण्ड देबाक लेल तैयार भऽ जाइत छी। कथामे अगर ककरो सुख प्राप्त होइत छैक तँ एकर कारण बतवक हेतैक। दुःखो भेटैत छैक तँ ओकर कारण बतवक हेतैक। एतऽ कोनो चरित्र मरि नहि सकैत छैक जाबत तक मानव-न्याय-बुद्धि ओकर मौत ने मांगैक। सृष्टाकँ् जनताक अदालतमे अप्पन हर एक कृतिक लेल जवाब देबऽ पड़तैक। कलाक रहस्य भ्रान्ति अछि, मुदा ओ भ्रान्ति जाहिपर यथार्थक आवरण पड़ल हो।
हमरा सभकेँ ई स्वीकार कऽ लेबऽ मे संकोच नहि हेबाक चाही कि उपन्यासोक जकाँ आख्यायिकाक कलो हम पश्चिमसँ लेल अछि। कमसँ कम एकर आइ-काल्हुक विकसित रूप तँ पश्चिमेक अछि। अनेक कारण सभसँ जीवनक अन्य धारा सभक तरहे साहित्योमे हमर प्रगति रुकि गेल आ हम प्राचीनसँ एको-रत्ती एम्हर-ओम्हर हटबो निषिद्ध बुझि लेलहुँ। साहित्यक लेल प्राचीन लोक सभ जे मर्यादा बाँधि देने छलथि, ओकर उल्लंघन करब वर्जित छल। अतएव काव्य, नाटक, कथा कथूमे हम अप्पन कदम बढ़ा नहि सकलहुँ। कोनो बस्तु बहुत सुन्दर भेलोपर अरुचिकर भऽ जाइत अछि, जावत तक ओइमे किछु नवीनता ने आनल जाए। एक्के तरहक नाटक, एक्के तरहक काव्य पढ़ैत-पढ़ैत आदमी ऊबि जाइत अछि आ ओ किछु नव चीज चाहैत अछि, चाहे ओ ओतेक सुन्दर आ उत्कृष्ट नहि हो। हमरा ओतऽ तँ ई इच्छा उठबे ने कएल या हम सभ एतेक सकुचएलहुँ कि ओ जड़ीभूत भऽ गेल। पश्चिम प्रगति करैत रहल, ओकरा नवीनताक भूख छलैक मर्यादाक बेड़ी सभसँ चिढ़। जीवनक हर एक विभागमे ओकर एहि अस्थिरताक, असंतोषक बेड़ी सभसँ मुक्त भऽ जेबाक छाप लागल अछि। साहित्यमे सेहो ओ क्रान्ति मचा देलक।
शेक्सपियरक नाटक अनुपम अछि मुदा आइ ओइ नाटक सभक जनताक जीवनसँ कोनो सम्बन्ध नहि। आजुक नाटकक उद्देश्य किछु आओर अछि, आदर्श किछु आओर अछि, विषय किछु आओर अछि, शैली किछु आओर अछि। कथा-साहित्यमे सेहो विकास भेल आ ओकर विषयमे चाहे ओतेक पैघ परिवर्तन नहि भेलैक मुदा शैली तँ बिल्कुले बदलि गेलैक। अलिफलैला ओहि समयक आदर्श छलै, जाहिमे बहुरूपता छलै, वैचित्र्य छलै, कुतुहल छलै, रोमांस छलै, मुदा ओइमे जीवनक समस्या नहि छलै, मनोविज्ञानक रहस्य नहि छलै, अनुभूति सभक एतेक प्रचुरता नहि छलै, जीवन आ सत्य रूपमे ओतेक स्पष्टता नहि छलै। ओकर रूपान्तर भेलैक आ उपन्यासक उदय भेलैक जे कथा आ ड्रामाक बीचक बस्तु अछि। पुरान दृष्टान्त सभ रूपान्तरित भऽ गल्प बनि गेल। 
मुदा सए वर्ष पहिले यूरोप सेहो एहि कलासँ अनभिज्ञ छल। पैघ-पैघ, उच्च कोटिक दार्शनिक तथा ऐतिहासिक आ सामाजिक उपन्यास लिखल जाइत छल, लेकिन छोट-छोट कथा सभक दिस ककरो ध्यान नहि जाइत छलैक। हँ परी सभक आ भूत सभक कथा लिखल जाइत छल, किन्तु एहि एक शताब्दीक अन्दर या ओहूसँ कम बुझी छोट-कथा साहित्यक आन सभ अंगपर विजय प्राप्त कऽ लेलक अछि, आ ई गलत नहि होएत कि जेना कोनो जमानामे कविते साहित्यिक अभिव्यक्तिक व्यापक रूप छल ओहिना आइ कथा अछि। आ ओकरा ई गौरव प्राप्त भेलैक अछि यूरोपक कतेको महान कलाकारक प्रतिभासँ, जाहिमे बालजाँक, मोपासाँ, चेखब, टॉलस्टाय, मैक्सिम गोर्की आदि मुख्य अछि। हिन्दीमे पचीस-तीस साल पूर्व तक गल्पक जन्म नहि भेल छल। आइ तँ कोनो एहन पत्रिका नहि जाहिमे दू-चारि “कथा” नहि होअए, एतऽ तक कि कतेको पत्रिकामे केवल “कथे”देल जाइत अछि।
कथाक एहि प्राबल्यक मुख्य कारण आजुक जीवन संग्राम आ समयाभाव अछि, आब ओ जमाना नहि रहल कि हम “बोस्ताने खयाल” लऽ कऽ बैस जाइ आ पूरा दिन ओकरे कुँजमे विचरैत रही। आब तँ हम संग्राममे एतेक तन्मय भऽ गेल छी कि हमरा मनोरंजनक लेल समय नहि भेटैत अछि, अगर किछु मनोरंजन स्वास्थ्यक लेल अनिवार्य नहि होइत आ हम विक्षिप्त भेले बिना अट्ठारह घंटा काज कऽ सकितहुँ तँ शाइत हम मनोरंजनक नाम तक नहि लितहुँ, मुदा प्रकृति हमरा विवश कऽ देलक अछि तैँ हम चाहैत छी कि थोड़सँ थोड़ समयमे अधिकसँ अधिक मनोरंजन भऽ जाए, तैँ सिनेमा घरक संख्या दिनो-दिन बढ़ैत जाइत अछि। जाहि उपन्यासकेँ पढ़ऽमे महीना लगैत ओकर आनन्द हम दू घंटामे उठा लैत छी। कथाक लेल पन्द्रह-बीसे मिनट काफी अछि। अतएब हम कथा एहन चाहैत छी कि ओ थोड़सँ थोड़ शब्दमे कहल जाए, ओहिमे एक वाक्य कि एक शब्दो अनावश्यक नहि आबि पाबए, ओकर पहिले वाक्य मनकेँ आकर्षित कऽ लिअए आ अन्त तक ओकरा मुग्ध कएने रहए, ओकरामे किछु छटपटाहट होइक, किछु ताजगी होइक, किछु विकास होइक आ ओकर संग किछु तत्वो होइक। तत्वहीन कथासँ चाहे मनोरंजन भऽ जाए मानसिक तृप्ति नहि होइत छैक। ई सत्य अछि जे हम कथामे उपदेश नहि चाहैत छी, मुदा विचारकेँ उत्तेजित करक लेल, मनक सुन्दर भावकेँ जागृत करक लेल किछु ने किछु अवश्य चाहैत छी। वैह कथा सफल होइत अछि जाहिमे अइ दुनूमे सँ मनोरंजन आ मानसिक तृप्तिमे सँ एक अवश्य उपलब्ध अछि।
सभसँ उत्तम कथा ओ होइत अछि जकर आधार कोनो मनोवैज्ञानिक सत्यपर होइक। साधु पिताक अप्पन कुव्यसनी पुत्रक दशासँ दुखी होएब मनोवैज्ञानिक सत्य अछि। एहि आवेगमे पिताक मनोवेगकेँ चित्रित करब आ तदनुकूल ओकर व्यवहारकेँ प्रदर्शित करब कथाकेँ आकर्षक बना सकैत अछि। अधलाह लोक सेहो बिल्कुल अधलाह नह होइत अछि, ओकरोमे कतौ ने कतौ देवता अवश्य छिपल होइत छैक, ई मनोवैज्ञानिक सत्य अछि। ओइ देवताकेँ खोलि कऽ देखाए देब सफल आख्यायिकाक काज अछि। विपत्तिपर विपत्ति पड़लासँ मनुष्य कतेक दिलेर भऽ जाइत अछि एते तक कि ओ पैघसँ पैघ संकटक सामना करक लेल टाल-ठोकि कऽ तैयार भऽ जाइत अछि। ओकर सभ दुर्वासना भागि जाइत छैक। ओकरा हृदयक कोनो गुप्त स्थानमे छिपल जौहर निकलि अबैत छैक आ हमरा चकित कऽ दैत अछि, मनोवैज्ञानिक सत्य अछि।
एक्के घटना वा दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृतक मनुष्यकेँ भिन्न-भिन्न रूपसँ प्रभावित करैत अछि। हम कथामे एकरा सफलताक संग देखा सकी तँ कथा अवश्य आकर्षक होएत। कोनो समस्याक समावेश कथाकेँ आकर्षक बनबाक सभसँ बड़का साधन अछि। जीवनमे एहन समस्या नित्ये उपस्थित होइत अछि आ ओहिमे पैदा होबऽबला द्वन्द्व आख्यायिकाकेँ चमका दैत अछि। सत्यवादी पिताकेँ पता चलैत छैक कि ओकर पुत्र हत्या केलक अछि ओ ओकरा न्यायक वेदीपर बलिदान कऽ दिअए वा अप्पन जीवन सिद्धान्तक हत्या कऽ दिअए? कतेक भीषण द्वन्द्व अछि! पश्चाताप एहन द्वन्द्वक अखण्ड श्रोत अछि। एक भाए दोसर भाएक सम्पत्ति छल-कपटसँ अपहरण कऽ लेलक अछि, ओकरा भिक्षा मांगैत देख कऽ की छली भाएकेँ कनिको पश्चाताप नहि हेतैक। अगर एना नहि होइक तँ ओ मनुष्य नहि अछि।
उपन्यासेक जकाँ कथा सेहो किछु घटना प्रधान होइत अछि, किछु चरित्र प्रधान। चरित्र प्रधान कथाक पद उच्च बुझल जाइत अछि, मुदा कथामे बहुत विस्तृत विश्लेषणक गुंजाइश नहि होइत अछि। एतऽ हमर उद्देश्य सम्पूर्ण मनुष्यकेँ चित्रित करब नहि, बल्कि ओकर चरित्रक एक अंग देखाएब अछि। ई परमावश्यक अछि कि हमरा कथासँ जे परिणाम वा तत्व निकलए ओ सर्वमान्य होबए आ ओइमे किछु बारीकी होबए। ई एक साधारण निअम अछि कि हमरा ओही बातेक आनन्द अबैत अछि जाहिसँ हमर किछु सम्बन्ध होबए। जुआ खेलऽबलाकेँ जे उन्माद आ उल्लास होइत छैक ओ दर्शककेँ कदापि नहि भऽ सकैत अछि। जखन हमर चरित्र एतेक सजीव आ आकर्षक अछि कि पाठक स्वयंकेँ ओकरा स्थानपर समझि लैत अछ तखने ओकरा कथाक आनन्द प्राप्त होइत छैक। अगर लेखक अपना पात्रक प्रति पाठकमे ई सहानुभूति नहि उत्पन्न कऽ देलक तँ ओ अपना उद्देश्यमे असफल अछि।
पाठकसँ ई कहक जरूरति नहि अछि कि अइ थोड़ दिनमे हिन्दी गल्पकला कतेक प्रौढ़ता प्राप्त कऽ लेलक अछि। पहिने हमरा सामने बंगला कथाक नमूना छल। आब हम संसारक सभ प्रमुख गल्प लेखकक रचना पढ़ैत छी, ओहिपर विचार अ बहस करैत छी, ओकर गुण-दोष निकालैत छी आ ओहिसँ प्रभावित भेने बिना नहि रहि सकैत छी। आब हिन्दीक गल्प लेखक सभमे विषय, दृष्टिकोण आ शैलीक अलग-अलग विकास होबऽ लागल अछि। कथा जीवनक बहुत निकट आबि गेल अछि। ओकर जमीन आब ओतेक लम्बा-चौड़ा नहि अछि। ओहिमे कतेक रस, कतेक चरित्र आ कतेक घटनाक लेल स्थान नहि रहल। आब ओ केवल एक प्रसंगक, आत्माक एक झलकक सजीव ह्रूदयस्पर्शी चित्रण अछि। ई एक तथ्यता, ओहिमे प्रभाव, आकस्मिकता आ तीव्रता भरि दी। आब ओहिमे व्याक्याक अंश कम संवेदनाक अंश बेसी रहैत अछि। एकर शैलियो आब प्रभावमय भऽ गेल अछि। लेखककेँ जे किछु कहक अछि ओ कमसँ कम शब्दमे कहि देबऽ चाहैत अछि। ओ अप्पन चरित्रक मनोभावनाक व्याख्या करैत नहि बैसैत अछि, केवल ओकरा दिस इशारा कऽ दैत अछि। कखनो-कखनो तँ संभाषणमे एक दू-शब्देसँ काज निकालि लैत अछि। एहन कतेको अवसर होइत अछि, जखन पात्रक मुँहसँ एक शब्द सुनि कऽ हम ओकर मनोभावक पूरा अनुमान कऽ लैत छी। पूरा वाक्यक जरूरतिये नहि रहैत अछि। आब हम कथाक मूल्य ओकर घटना विन्याससँ नहि लगबैत छी। हम चाहैत छी पात्रक मनोगति स्वयं घटनाक सृष्टि कराबए। घतनाक स्वतन्त्र कोनो महत्वे नहि रहल, ओकर महत्व कवल पात्रक मनोभावकेँ व्यक्त करबाक दृष्टिएसँ अछि- ओहिना जेना शालिग्राम स्वतन्त्र रूपस कवल पत्थरक एक गोल टुकड़ा छ्हथि, लेकिन उपासकक श्रद्धासँ प्रतिष्ठित भऽ कऽ देवता बनि जाइत छथि। खुलासा ई कि गल्पक आधार आब घटना नहि, मनोवैज्ञानिक अनुभूति अछि। आइ लेखक कोनो रोचक दृश्य देख कऽ कथा लिखऽ नहि बैस जाइत अछि। ओकर उद्देश्य स्थूल सौन्दर्य नहि। ओ तँ कोनो एहन प्रेरणा चाहैत अछि, जाहिमे सौन्दर्यक झलक होइक आ ओकरा द्वारा ओ पाठकक सुन्दर भावनाक स्पर्श कऽ सकए।

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