Saturday, April 7, 2012

संगीक महत :: जगदीश मण्‍डल

संगीक महत

एकटा गाछ लग एकटा फूलक लत्ती जनमि क लटपटाइत बढ़ैत गाछक फुनगी धरि पहुँचि‍ गेल। गाछक आश्रए पाबि ओ लत्ती फुलाए-फड़ए लगल। लत्तीक फड़-फूल देखि‍ गाछक मनमे द्वेष जगए लगलै जे हमरे बले ई लत्ती एत्ते बढ़ि, फड़ै-फुलाइत अछि‍। जँ हम सहारा नै दैति‍ऐ तँ कहिया-कतए ने माल-जाल चरि नष्ट क देने रहितै। लत्तीपर रोब जमबैत गाछ कहलकै- तोरा हम जे आदेश दियौ से तूँ कर। नै तँ मारि क भगा देबौ।
वृक्ष लत्तीकेँ कहिते छल आकि दूटा बटोही ओइ रस्ते जाइत छल। लत्तीसँ सुशोभित गाछ देखि‍ एकटा राही दोसरकेँ कहलक- संगी, ऐ वृक्षकेँ दखियौ जे कत्ते सुन्दर लगैए। निच्चाँमे कत्ते-शीतल केने अछि। ऐठाम बैस बीड़ी-तमाकुल कऽ लिअ, तखन आगू बढ़ब।
लत्ती संग अपन महत सुनि गाछक रोब समाप्त भ गेलै। ओइ दिनसँ दुनू मिलि‍ प्रेमसँ रहए लगल।


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