मरनी भिनसुरके पहर बेलाराही चौरीसँ एक गैलन काकोड़ बीछि अनने रहए। मेला-ठेलाक समए रहै तैं, काेठीसँ दू मुजेला काटू निकालि अंगनामे सुखैले देलकै। ओकर वाद नहा-सोनाह आ खाए कऽ सुतैले खेन्हरा लऽ डेढ़ियापर चल गेल। पुरबा हलफी दैत छले, निन्न टुटलै। आँखि मिड़ते उठल आ हाँइ-हाँइ कऽ काँटू डेंगाबऽ लागल। डेंगा-ठठा लेलाक बाद सुपसँ फटकि माएक तहवनमे बान्हिो माएसँ नुका कऽ धऽ अाएल कोठिक दोगमे। झल अन्हाठर भेलै तँ भगबत्ता दोकानसँ बेच अनलक। तीन सेर भेलै। आठ अने दरसँ डेढ़ गो टाका भेलै। ओ भगवतेसँ कहि सुनि कऽ चारि गो चौवन्नी आ दू गो अठन्नी भजोखा लऽ चुपे-चाप आंगन चल गेली।
विहान भेने मेला छलै ‘किसना मुट्ठी’। मरनी तरे-तर हिसाव लगोने जे चारि-चारि आना पाइ दुनू छोटकी बहीन अभेलिया आ सुगियाकेँ देवे। चारि आनामे बौआले एकटा कठपुतरी किन लेब आ एकटा फूका। चारि आनाक कचौरी आ चप कीनि लेब। ओकर तँ मने छलै चप-चप।
आठ आनामे एकटा अलता आ फीता लऽ लेब। घुरती काल आठ आनाक जिलेवी कीनि लेब।
भोरे विहान फेर ओ अपन गैलेन लऽ चलि गेल चौरि आ विछि लेलक एक गैलेन काँकोड़। आंगन आबि बकरी घरमे गैलेन राखि ओ नहाइ-सोनाइले चलि गेल आ नाहा-सोना, खा-पी कऽ सुति रहल।
एम्हरर नेहेवा काल ओकरा माएकेँ तहबन नहि भेटलै तँ औना कऽ एम्हसर-ओम्ह-र तकलक तँ देखलक, ओ तँ कोठी दोगमे फेकल अछि- आ मड़ुआक किछु दाना लागल छलै। कोठी मुन्ना से फूटल। से देखि ओकरा आगि लेस देलकै। ओकरा हरलै ने फुरलै सुतलैमे मरनीकेँ गट्टा पकड़ि लात्ते-मुक्के धुनि देलकै। गाड़ि पढ़ि-पढ़ि पूछए लगलै- “बाज सौतीन बाज की केलही पाइ मरूआ बेच कऽ?”
अबोध बच्चाछ कनैत बाजल- “माए गै माए मेला देखैले जेबै बलवा परतीपर मेला।”
माए तामसे अघोड़ रहबे करै फेर बाजलि- “बाज सौतीन बाज कथीक मेला।”
माए, गै माए, मेला देखैले जेबइ मेला- किसना मुट्ठीक मेला।
(साभार विदेह विहनि कथा अंक www.videha.co.in )
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