Friday, April 6, 2012

कुमार मनोज कश्यप- विहनि कथा-जीतक आगू




छहरि मे कनेक तऽ कटारि भेलै किं देखिते - देखिते सौंसे गाम दहा गेलै  छती सँ उपर पानि ठेकिं गेलै आर बढ़िते जा रहल छलै। लोक वस्तु-जात जे समेटि सकल से समेटलक नहिं तऽ जान बचा कऽ पड़ायल । दस-पाँच टा लोक जकरा कोठा छलै से तऽ छत पर जा कऽ प्राण बचेलक । भुखना के पड़ेबाक कोनो रस्ता नहिं सुझलै तऽ अपन भीत घरक चार पर चढ़ि गेल । पानिक ओहि मारूक लहरि मे भीतक घर कतेक काल ठठितै  अड़्‌ड़ा कऽ खसि पड़लै । चार पर बैसल भुखना आब पानिक हिलकोर मे ऊब-डुब करैत भसियायल जा रहल छल । हाकरोस कऽ कऽ लोक सभ सँ नेहोरा व्कंरैत रहलै बचेबा लेल । सब के तऽ अपन जान के पड़ल छलै़ ओकरा के बचाबओ ।

जीवन-मरन के बीच झुलैत भुखना चार के कसिया कऽ पक़ंडने भासल जा रहल छल । ओ जीवन हारिये देने छल किं चार एकटा पैघ नीमक गाछ सँ टकरा कऽ कनेक काल लेल विलमलै़ओ पूर्ति सँ भरि पाँज गाछ कसिया कऽ गाछ के पकड़ि लेलक । चार पेर सँ ओहिना भसियाईत चलि जाईत रहलई । ओ अपना शरीर मे बल अनलक आ पीछड़ैत-चढ़ैत गाछ पर चढ़िये गेल । गाछक एक पेड़ पर पैर राखि कऽ दोसर सँ अड़किं कऽ उसास छोड़लक लगलै जेना पुनर्जन्म भेल होई ओकर । गाछ पर ठाढ़ ओ बाढ़िक लीला देखैत रहल । ओहिना ठाढ़े-ठाढ़ कखन ओकर आँखि लागि गेलै से अपनो नहिं बुझलक ओ ।

भोर मे जखन सुरूजक लाली छीटकलै आ फरीछ भेलै तऽ ओकर आँखि खुजलै । चारू कात तकलक ओ सगरो पानिये-पानि़क़ंतहु-कतहु दूर -दूर मे कोनो टा गाछ किंवा कोनो कोठाक घरक आधा भाग टा मात्र देखवा मे एलै । अँगैठी-मोर करैत ओ अपन माथक उपर तकलक । तकिंते घिघियाय लागला साक्षात यमराज के अपना माथक उपर देखलक ओ एकटा कारी-भुजुंग सुच्चा गहुमन सँाप उपरका डारि मे लपटायल । एक बेर मृत्यु के मुँह मे जेबा सँ बाँचल तऽ दोसर मृत्यु लग मे ठाढ़ । गहुमन के डँसल तऽ पानियो नहिं मँगैत छै़ओकरा आँखिक आगू अन्हार होमय लगलै़आब ओकर प्राण जेबा मे कोनो टा भाँगठ नहिं । आँखि मुनि लेलक ओ आ आसन्न मृत्यु के प्रतिक्षा करय लागल ।

किं एक बेर पेर कतहु सँ हिम्मत जगलै ओकरा मे़ऩहुँये-नहुँये ओ दोसर डरि पर आबि गेल़़ गाछक एकटा डारि तोरलक आ समधानि कऽ गहुमन के माथ पर दऽ मारलक । निशान सटीक रहलै़सँाप अचेत भऽ कऽ पानि मे खसि पड़लै आ धारक सँग बहि गेलै । भुखना विजयी भाव से चारू कात तकलक । ओकर वीरता देखय वला ओतय के छलै ?


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