Friday, April 6, 2012

मिथिलेश कुमार झा- विहनि कथा- झीक



“अँए गे माए, पोखरिभीरावालीक मूह आइ भोरेसँ लटकल देखै छिऐ। की भेलैए? ”
“गइ हेतै की! आइ कए दिनसँ साँएक फोन नै एलैए ने, तैँ।...गइ हम सुन्दरकान्तक माए छिऐ से किच्छु नै आ एकरा माइले फटै छै। ओ एकोरत्ती गुदानै छै नहिए।...एकटा बेटी भेला छः साल भऽ गेलै आ तकरा बाद जेना कोखिए जरि गेलै। कथीपर गुदान्ता करौ! गइ ओकर तँ वंशे बुरऽपर लागल छै।”
माए बेटीक फदका कनिञा सुनलनि तँ कोंढ़ फाटि गेलनि। घरसँ बहरा सासु-ननदिक मूहमे झीक दैत बजली-
“हे, एम्हर केओ बाँझ नै छै। बेटाकेँ थितगर नोकरी नै छनि तैँ भेल जे एकेटाकेँ यदि मनुक्ख बना सकी तँ सएह बहुत। आ वंश बुरऽक बात करै छथि, यदि मनुक्ख नै भेल तँ बेटोसँ वंश बुरि जाइ छै आ बेटी लछ्मी हुअय तँ आनो गाँमे वंशक ना चलै छै, बुझलखिन! ”

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