Friday, April 6, 2012

मिथिलेश कुमार झा- विहनि कथा-दर्शन



देवकान्त बाबू दस बर्खपर गाम आयल छलाह बेटाक उपनयन करबाक लेल। ढोल-पिपही, आजन-बाजन आ आर्केस्ट्रा आदिसँ गाम गनगनाइत रहल। तीनू दिन बरबरना भोज, छेना-रसगुल्ला बहि गेल। एहन डील-डलसँ गाँ भरिमे केओ नै कएने छल उपनयन। वाह रे देवकान्त बाबू!
रातिमक परात फूदन बाबा देवकान्त बाबूक प्रशंसा करैत कहलखिन-

“हओ देबू! तोँ तँ सभक कीर्तिकेँ तोपि देलहुन। ...आब हे, कनी अपन भैयापर नजरि दितहुन। बेचारे बड़ लचरि गेल छथि। आखिर सहोदर छहुन।”
“बाबा, हुनका आर कष्ट काटऽ दिअनु। कष्ट हेतनि तखने धियापुता उन्नति करतनि। होबऽ दिअनु कष्ट।”
फूदन बाबा अवाक्, हुनका ई दर्शन कहाँ बुझल छलनि!

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