Friday, April 6, 2012

कुमार मनोज कश्यप- विहनि कथा-जरल पेट




जेठक प्रचंड दुपहरियाक मे जखन छाँहों छाँह तकैत छैक घाम सँ लथपथ चिप्पी लागल मैल पढ़िया नुआँ,  जे ओकर लाज के झँपबा मे मुश्किंल सँ समर्थ भऽ रहल छलैक, पहिरने एकटा स्त्री कोर मे एकटा दू-तीन बरखक नेना के लऽ कऽ हमरा सोझाँ ठाढ़ भऽ जाईत आछ ।  किंताब पर सँ हमर नजरि ओकरा दिस जाईत आछ । ओ स्त्री हमरा सँ याचना करैत आछ किंछु खेबा लेल देबाक। कहैत आछ जे काल्हि रातिये सँ ओकरा दुनू माय-बेटा के मुँह मे अन्नक एकोटा दाना नहिं गेलैक आछ । हमरा दया आबि जाईत आछ ओकरा पर । आँगन जा कऽ माय के कहैत छियैक । माय भनसा घर मे जा कऽ देखैत आछ - 'पोछि-पाछि कऽ दू मुट्‌ठी भात भेलै  कनेके दालि बाँचल छई  तरकारी तऽ बचबे ने केलै । कतऽ छई ओ ? कही बारी सँ केराक दू टुक पात काटि अनतै । अपना बासन मे तऽ नहिं देबई खाय लेल । '

ओ स्त्री केराक पात लऽ कऽ दुरूक्खा मे छाँह मे बैस गेल । माय भात आ दालि ओकरा आगू मे परसि देलकै । हमर आग्रह पर कनेक आमक वुच्चो दऽ देने छलै । ओ स्त्री अपन नेना के अपना हाथ सँ खुआईये रहल छलै तैयो ओ अनभरोस नेना अपने दुनू हाथ लगा कऽ भकोसऽ लागल रहै । तखने ओ स्त्री अपन बामा हाथ सँ नेना के दुनू हाथ पकड़ि कऽ कात कऽ देलकै आ अपने पैघ-पैघ कौर गीड़य लगलै । नेना भुईंयाँ मे ओंघरिया मरैत रहलै ।


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