Friday, April 6, 2012

कुमार मनोज कश्यप- विहनि कथा- मरिचिका




'हे हर, हमरहु करहु प्रतिपाल ' - भवानीबाबूक मुँह सँ निकलल एहि गीतक भावार्थ मुहल्ला के अबाल-वृद्ध प्रायः सभ  के  बुझल  छलैक ।  एते  तक  किं  नेनो-भुटको सभ  बुझि  जाईत  छल  जे  भवानीबाबू आब  भोजनक  प्रतिक्षा  कय  रहलाह आछ ।

भवानीबाबू -- जिला परिषदक सेवा-निवृत बड़ा बाबू । सस्ती जमाना मे भवानीबाबू एक-एक टा रुपैया जमा कऽ कऽ शहर मे जमीन खरीद लेलनि। मुदा घर टा बनि सकलनि सेवा-निवृति के बादे । सेवा-निवृति पर भेटल  सभ पाई के लगा कऽ बनलनि  चारि कोठली के पक्कंा-पुख्ता मकान । जहिया मकान बनि कऽ पूरा तैयार भऽ गेलनि तहिया भवानीबाबू बाहर ठाढ़ भऽ कऽ बड़ी काल तक जोहैत रहलाह ओहि मकान के । जतबा खुशी शाहजहाँ के ताजमहल बनबा कऽ नहि भेल हेतैक; ओहि सँ कैक गुण आत्मिक खुशी भवानीबाबू के भेट रहल छलनि 'अपन' मकान के देखि कऽ । हाथक सभ पाई खतम भऽ जेबाक सेहो आई कोनो दुख नहिं बुझा रहल छलनि हुनका । दुख भेलनि तऽ बस एतबे जे कनियाँ एहि मकान के देखबा लेल नहिं रहि सकलखिन ।

चारु कोठली दुनू बेटा मे आपस मे बँटा गेल - दू टा कोठली दुनू बेटा-पुतोहू के आ दू टा  पोता-पोती के लेल । पूजा , स्टोर, पाहुन-परख एहि सभ लेल घरक कमी रहिये गेल । आब भवानीबाबू कतऽ जाथु ? अंत मे दुनू बेटा-पुतोहू सर्व-सम्मति सँ निर्णय कऽ कऽ हुनका आश्रय देलकनि बालकनीक एकटा कोन मे । कनियाँ तऽ पहिनहिं स्वर्गवासी भऽ चुकल रहथिन । भवानीबाबू अपने बनाओल घर मे आन बनि बालकनी के एक कोन मे टुटलहवा चौकी पर समय काटऽ लगलाह । हद तऽ तखन भऽ गेल जखन एक दिन भवानीबाबू के पेट सेहो बँटा गेलनि एक महिना जेठका बेटाक घर सँ तऽ दोसर महिना छोटका बेटा घर सँ ।

आई भवानीबाबू बड़ी काल धरि नहा-धो कऽ बैसल गीत गबैत रहि गेलाह ---बीच-बीच मे नजरि याचक-भाव सँ दुनू भाईक भनसा घर दिस सेहो बेरा-बारी सँ  जाईत रहल । गीत अंतरा धरि पहुँचि गेल । स्वर मद्धिम पड़ऽ लागल----उदास----थाकल---हारल---हे हर, हमरहु करहु प्रतिपाल़़।

No comments:

Post a Comment