Friday, April 6, 2012

बिआह आ गोरलगाइ



जमाय पएर छूबि कए प्रणाम कएलन्हि तँ ससुर सए टका निकालि एक टाकाक नोटक सिक्काक लेल कनियाँकेँ सोर केलन्हि।
खूब खर्च-बर्च कएने छलाह बेटीक बियाहमे पाइ अलग गनने छलाह आ नगरक चारि कठ्टा जमीन सेहो बेटीक नामे लिखि देने छलाह।
“नञि बाबूजी। ई गोर-लगाइक कोन जरूरी छैक”? 
तावत कनियाँ आबि गेल रहथिन्ह, एक टकाक सिक्का लऽ कए।
एक सए एक टाका जमायक हाथमे रखैत ससुर महराज बजलाह- –
“राखू-राखू । ई तँ पहिनहियो ने सोचितियैक”।


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