Friday, April 6, 2012

सतीश चन्द्र झा - विहनि कथा-नोकरी



पिताक आकस्मिक निधन रमेश कें मोन मे एकटा नव आशाक किरण जगा रहल छलैक। दुखी तऽ छल मुदा भविष्यक आशा मे एकटा पूर्णता के सेहो अनुभव भऽ रहल छलैक। एकटा बेरोजगार व्यक्ति थाकि हारि कऽबैसल पिताक नौकरी पर पूर्णतःआश्रित छल मुदा भगवानक इच्छा पिता सरकारी नोकरी मे रहिते प्रस्थान केलनि आ रमेश कें अनुकंपा पर नोकरी भेट गेलनि। हुनका बैसल मे सरकारी नोकरीक तगमा भेट गेलनि।दू बेकती अपने एकटा नेन्ना एकटा छोट भाय आ एकटा बहीन संगहि समय सँ पहिने बृद्ध होइत हुनक माता। मायक भीजल आँखि मे किछु संतोषक आभा प्रवेश कएलक। परिवार चलब आब फेर कठिन नहि रहत। पिताक बदला ज्येष्ठ पुत्र अपन कर्तव्यक परिवहन अवश्य करताह तकर पूर्ण विश्वास। मुदा आठ दश मास बितिते परिवारक संपूर्ण चित्र अस्पष्ट होमय लागल। जीवनक समटल गति मे व्यवधानक बसात प्रवेश करय लागल। घर खर्च, छोट बेटाक पढ़बाक खर्च, दोकान दौड़िक खगता सभटा अपूर्ण रहय लागल। क्षणिक आयल हर्ष मे एकटा फेर व्यवधान।
एकदिन मायक सहनशक्ति टूटि गेलनि तऽ रमेश के कहलथि बौआ एना किअए भऽ रहल अछि, बाबू जा धरि छलाह सबहक आवश्यकता पुरौलथि मुदा अहाँ नोकरी करितो सभटा पाइ कौड़ी की करै छी से किछु नहि बुझि पबै छी। माय! तू की बुझबिही! आब पहिलका समय नहि छै। पाइ कौड़ीक कोनो मोल नहि छैक। झण दऽ खर्च भऽ जाइत छैक। ओना तोरो लग तऽ बाबूक भविष्यनिधि आ एल आइ सी आदिक पाइ तऽ छौहे किए नै खर्च करै छैह। तू की करबै पाइ लऽ कऽ। वहीनक वियाह तऽ जेना जे हेतै से हेबे करतै।
माय तऽ सत्ते नहि बुझि सकलीह। साले भरि मे कोना एतेक परिवर्तन भऽ गेलैक। नहि जानि समय के दोष छैक अथवा संसारक देखा देखी बनि रहल नव परंपरा जाहि मे पुत्र अपन परिवार कें रूप मे मात्र अपन पत्नी आ बच्चा के बुझैत छथि।
नहि जानि लोक पुत्रक अभिलाषा मे अतेक कियै विचलित रहैत अछि। सोचैत सोचैत अपन पतिक फोटो के समक्ष ठाढ़ भऽ ओ अपन बीतल समय के ताकय लगली ।

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