महादान
अज्ञानक निवारण करब सभसँ पैघ पुण्य परमार्थ थिक। जे स्वध्याय आ ज्ञानार्जनसँ होइत अछि। उत्तराखंडमे एकटा पुरान नगरमे सुबोध नामक राजा राज्य करैत छलाह। राजा सुबोधक निअम छलनि जे राजक काज शुरू करैसँ पहिने, आएल याचक सभकेँ दान दैत छलाह। ऐ निअममे कहियो भूल नै भेलनि।
एक दिन सभ याचककेँ दान दऽ देलखिन मुदा विचित्र स्थिति पैदा भऽ गेलनि। एकटा याचक ओहन आएल छल जे दानक लेल तँ हाथ पसारैत छल मुदा मुँहसँ किछु नै बजैत। सभ हरान होइत जे हिनका की देल जाइन? एतथर्द बुधियार सबहक सलाहकार बोर्ड बनौलनि। कियो विचार दन्हि जे वस्त्र देल जाए तँ कियो अन्न देबाक सलाह देथिन। कियो सोना-चानीक विचार देथिन। मुदा समस्याक यथार्थ समाधान हेबे ने करैत। सुबोधक पत्नी उपवर्गा रहथिन।
उपवर्गा कहलकनि- “राजन, जइ आदमीक मुँहसँ बोल नै निकलै ओकरा आन कोनो चीज देब उचित नै। तँए एहेन लोककेँ मुँहमे बोल देब सभसँ उत्तम हएत। अर्थात् ज्ञानदान। ज्ञानसँ मनुख अपन सभ इच्छा-आकांक्षा पूर्ति कऽ सकैत अछि आ दोसरोकेँ मदति कऽ सकैत अछि।”
उपवर्गाक विचार सभकेँ जँचलनि। ओइ आदमीक लेल शिक्षा बेवस्था कएल गेल। ओइ दिन सुबोध अपन दानक सार्थकता बुझलनि।
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