धानक खेत । भोरका शीतसँ शीश
तितल । दिनानाथजी अप्पन आठ बर्खक बेटा संगे खेतक निरिक्षण करैत, काटै बला भेलै तँ
जोन करी आ कटाबी ।
“बाबू-बाबू देखू कतेकटा साँप ।“
“कतए ?“
“हैएअ धानक शीशपर लटकल ।“
“हा हा, धुत्त, ई तँ मात्र केँचूआ
छै ।“
“साँप केँचूआ कोना भए गेलै ।“
“बेटा, साँप केँचूआ नहि भए गेलै,
साँप बर्खमे एक बेर अप्पन देहक पुरनका खाल निकाइल दै छै जेकरा केँचूआ कहल जाइ छैक ।“
“बाबू, हम मनुख सभ केँचूआ नहि
उतारै छी ?”
दिनानाथजी
किछु छन चुप्प रहला बाद, “बेटा, साँप तँ बर्खमे एकबेर अप्पन केँचूआ उतारि कए निचैन
भऽ जाइए मुदा मनुख तँ झूठ, बैमानी आ लोभक जन्म-जन्मकेँ कतेक केँचूआ अपना देहपर ओढ़ने
रहैए तकर कोनो इत्ता नहि मुदा तैयो ओकरा नहि संतोख आ नहि केँचूआ उतारैक मोन होइ छैक ।“
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