“आलू कोबी झिमनी लेबै यै ?” साठि बासठि बर्खक
बुढ़ी कुजरनी माथपर पथिया रखने किलोल करैत ।
“यै झिमनी बाली, एम्हर आबू ।“
“एलहुँ बौआ ।“
“चलू हमर अँगना माए झिमनी लेतै ।“
अँगना आबि, “आलू कोबी झिमनी लेबै यै कनियाँ ।“
“हाँ यै, बैसथुन्ह अबै छी ।“
कुजरनी दाइ, माथसँ पथिया उतारि, माथक बिड़ा पोन
तरि राखि बैसला बाद, “की लेबै ?”
“कनी झिमनी लेबै, की भा दै छथिन ।“
“अहाँ लिअ ने भा की, बस एहि बुढ़ारीमे कोनोना
दुनू साँझक भोजन पार लागि जे ।“
“से कि दाइ, बेटा पुतहु नहि देखै छथि ।“
“ओ सभ
की देखत, आ जँ देखति तँ एहि बएसमे आइ ई पथिया लऽ कऽ घुमतहुँ ?”
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