मौहककेँ बिध होइत। वर कनियाँ खीरक थारीक आगू
बैसल। चारू कातसँ कनियाँक सखी सहेली आ गामक स्त्रीगण घेरने।
एकटा, “गे दाए ! ओझाजी तँ चुपचाप बैसल छथि।”
दोसर, “लगैए रुसल छथि।”
तेसर, “हाँ यौ ओझाजी ! किछु चाही-ताही तँ माँगि
लिअ।”
हा हा हा .... सभ एक्के संगे हँसए लगली।
दोसर, “हिनकर ससुर तँ एतेक शुद्धा छथिन जे बिन
माँगने किछु नहि भेटै बला।”
ओझाजी, “की माँगू, अपन बेटी देला बाद आब हुनका
लग बैँचिए की गेलैनि।”
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