Tuesday, July 23, 2013

लचार




परबाबा परबाबी गाममे अपन परपुतहुकेँ रखने। अपन सेवाक लोभमे अथवा परपोताक कोनो मजबूरी रहल होनि।
बाबा बाबीसँ, “दुनू बच्चाक मुड़न तँ जेना तेना कए रहल छियैक, सभकेँ नोतो हकार दए देलिऐ, आब आँगुरपर गाणल चारि दिन रहि गेलए मुदा पता नहि बच्चू(बच्चू,हुनकर पोता) पाइ पठेबो करत की नहि।”
बाबी, “धूर जाऊ ! अहुँ केहेन गप्प करै छी। अपन परपोता परपोतीक मुरन कए रहल छी, ई शोभाग्य केकरा भेटै छै। चारि पाँच हजारक खर्चा डरे डराइ छी।”
“अहाँ ठीके कहलहुँ, ई शोभाग्य केकरो नहि भेटै छै अपन परपोताक मुड़न ओहो परपोता संगे परपोतीक सेहो। एहि मुड़नक बाद तँ अप्पन दुनूकेँ सोझे स्वर्गमे जगह भेट जाएत, मुदा एहि दुनियाँक भौतिक काज हेतु पाइ चाहबे करी।”   
“बस ! शुरू भए गेलहुँ पाइ पाइ।”
“अहाँ नहि बुझैत छीयैक, चारू बेटामे सँ तँ कियो पठेबे नहि करैए, बचल अपन तीन हजार रुपैया महिनाक पेंशन। ओहिमे सँ की की हेतै, अपन दुनूक भोजन, कपरा-लत्ता, दबाई-दारू, समय समयपर पाबनि-तिहार, गाम-गमाइत सभटा एहिमे आ एखन दू महिनासँ बच्चूक कनियाँ दुनू बच्चाक संगे छथि, ओहि तीन हजारमे की की हेतै। नहि तँ हमरा नहि सअख हैए अप्पन जौआँ परपोता परपोतीक मुड़नमे भरि गामकेँ नोति कए धूमधामसँ करी मुदा अर्थक सामने लचार छी।”    
ई कहि बाबाक बुढ़ आँखिक कोरसँ दू दू बुन्न नोर तघरि कए बाबीक नजरिसँ बँचैत लाजे हुनकर कुरताक तअरमे नुका गेलनि।

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