Thursday, July 18, 2013

नजरि मिलाबए जोगरक

भोरे भोर मोबाइल फोनक घंटी, “ट्रिन ट्रिन.....!
दीनानाथजी फोनक स्क्रीनपर देखलनि, हुनकर छोटकी भाबौक फोन, आमने सामने एक दोसरसँ गप्प नहि होइ छनि मुदा फोनपर जरूरी गप्प आ समादसँ परहेज नहि।
हेलो।
भाइजी, नास्ता करैक लेल आबि जाऊ।
नास्ता तँ हम कए लेलहुँ।
की सब केलहुँ।
रातिक तरकारी बचल छलै, दूटा रोटी आ चाह बना नेने रही।
एना किएक भाइजी? हमरासँ कोनो गलती भए गेल की?”
नहि नहि एहन कोनो गप्प नहि।
तँ नास्ता भोजन लेल, जाबैत धरि दीदी नैहरमे छथिन एहिठाम आबि जएल करी।
कोनो गप्प नहि अहाँ चिंता नहि करू, वाणी(दीनानाथ जीक बेटी) आब नम्हर भेलै दिन रातिक भोजन ओ बना लै छै। भोरका हमरा किछु किछु करए परैए किएक तँ ओकरा भोरेक साते बजेक इसकूल छैक। दोसर अहूँकेँ छोट चिलका अछि ओकरामे बड्ड परिपालन है छैक आ हमहूँ अहीँ सभपर कतेक भार दिअ। अहीँक घरमे रहि रहल छी, बिना दाम बिना भारा, अहीँक पाइसँ खा-पी रहल छी, हम पैघ छी तँ कतए हमरा करए चाही आ उल्टे अहीँ सभ कए रहल छी। आब एक्के बेर एतेक उपकार लए कऽ.....! नजरि मिलाबए जोगरक तँ रहै दिअ।
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जगदानन्द झा 'मनु'



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