“यौ गृहथ बचियाक दुरागमन छैक दू हजार रापैया
पैंच दिअ अगहनक कटनीपर आपस कऽ देब |”
“हाँ खगता उत्तर मधुरगर मधुरगर बोल आ काज निकैल
गेलापर गृहथ दुश्मन | परसु रमेशराकेँ कहलिऐ कनी दू दिनक बोइनिपर रहि जो, बारी झारी
साफ करैक अछि तँ मुँह बना कऽ कहलक, मालिकक ओहिठाम काज कए रहल छी आ एखन मालिक कतए
चलि गेला |”
“बीतल बर्ख एहि बचियाक
ब्याहपर मालिक दस हजार रुपैयाक मदद केने रहथिन, बिना वापसिक | आब अहीँ कहियौ, हुनकर
बोइनि छोरि कऽ कतौ दोसरठाम काज कोना करतै, बोइनि तँ कतौ करहेक छै, तँ हुनकर ओहिठाम
किएक नहि | एतबो आँखिमे पानि नहि रखबै तँ मुइला बाद उपर बलाकेँ की मुँह देखेबै |” *****
जगदानन्द झा 'मनु'
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