भगवती मंदिरक
प्राँगण | आरती होइत | भीरक अम्बार लागल | घरी घंटा, शंखादीक शुभ ध्वनीसँ चाहुदिस
भक्तिमय वातावरण बनल | मंदिरक मुख्य पुजारी अपन दहिना हाथसँ बड़काटा प्रज्वलित
पंचदीपसँ आरती करैत आ संगे बामा हाथसँ चम्बर डोलाबैत मधुर स्वरसँ भक्तिमे लीन भए
माँ भगवतीक आरतीमे लागल | आरती अपन समाप्तिक दिस बढ़ैत | मुख्य पुजारीजी बिना पाछू
देखने अपन जगहसँ आरती करैत चम्बर डोलाबैत,
धीरे धीरे पाछू मुँहे मन्दिरकक्षसँ निकलि मंदिर प्राँगनमे भीरक बिच पाछूए मुँहे
अबैत | ई हुनक नित्यक काज रहबाक कारणे हुनका पूर्ण अभ्यास रहनि | पाछू मुँहे, पाछू
ससरैत ओ भीरक अन्तिम छोरपर पहुँचला | ओहिठाम सभसँ कातमे दू तीनटा मलीन बेसमे २५
सँ ३० बर्खक समतुरिया स्त्री ठार | शाइद हुनका सभकेँ नहि बुझल जे पुजारीजी एहिदने
तुलसीचौरा लग जेता तेँ ओ सभ पुजारी जीकेँ एला बादो अपन जगह ठाढ़े | पुजारीजी अपन
दुनू आँखिकेँ गुम्हरि कए गरदैनसँ हतैक इशारा करैत, “हूँ |’
ओहिमे सँ एक (पहिल)
स्त्री जे मधुरक एकटा डिब्बा भगवतीकेँ चढ़ाबै लेल अनने रहथि, “की हूँ |”
दोसर स्त्री, “गै ई
कहै छौ ई डिब्बा दही ने मैयाकेँ भोग लगेतै |”
पहिल स्त्री मधुरक डिब्बा
पुजारीजीकेँ दिस बढ़ोलनि, बढ़बैक कालमे ओ डिब्बा पुजारी जीक धोतीसँ भिर गेलन्हि |
पुजारीजी, “हे भगवती ! एकरा सभकेँ के आबै देलकै, सभटा देह अपवित्र भए गेल | फेरसँ
स्नान कए तुलसीजीक आरती करए परत |”
तेसर स्त्री जे की
चुप एखनतक सभटा गप्प सुनैत छली, “की पुजारी एखन तोहर धोतीमे भिरलासँ तुँ अपवित्र भ
गेलह, तोरा फेरसँ असनान करेए परतअ आ रातिक अन्हारमे जे हमरा सभक घरे-घर मुँह
मारैत रहै छ तैँ कालमे तोहर देह अपवित्र नै होइ छ |”
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