Monday, September 10, 2012

काल्हि‍ दि‍न :: जगदीश प्रसाद मण्‍डल




हमरा गामक पजरे पाभरि‍ हटल कटहरबा गाम छै। हमरा गाम जकाँ बरहवर्णा तँ नै मुदा तैयो दू सय घरसँ उपरेक छै। तीनि‍ये-चारि‍ जाइति‍क बस्‍ती।
समांगक पातर रहने परदेश नै जाइ छी। अधपुरान साइकि‍लपर मसल्‍लाक (मि‍रचाइ, हरदी, धनि‍या, लहसुन इत्‍यादि‍) कारवार करै छी। हमर मेन मारकेट कटहरबे छी। पनरह-बीस घरक पाहि‍ लगौने छी, सभ दि‍न हरि‍यरि‍ये रहैए। बनि‍याँ जाति‍ वाकी दुनि‍याँसँ कोनो मतलब नै।

पैछला सालक भोट दि‍न कि‍ भेलै से अखनो ने बुझै छी। एतबे देखै छी जे दुनू गामक बीच खूब मारि‍ भेल। दुनू गामक लोक झोरा लऽ लऽ कोट-कचहरी करैए। चाहे जेकर गोटी लाल होय आकि‍ कारी, हमरा कोन मतलब।

छगुन्‍तामे पड़ल छी जे मारि‍ केलक कोय रोजी-रोटी हमर केना छीना गेल। एकठाम रहि‍तो दुनू गामक आबा-जाही कि‍अए बन्न भऽ गेल? अपना खेत-पथार अछि‍ जे अपने आगि‍ये-पानि‍ये नि‍महब! तइ बीच पत्नी आबि‍ बजलीह- एना सोग-पीड़ामे परि‍वार चलत?”

काल्हि‍ दि‍न केना चलत सएह तँ अपनो ि‍वचारै छी!”

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