Monday, November 21, 2016

हूसि‍ गेल

हूसि‍ गेल

भोज खा बाबा अबि‍ते रहैथ‍ कि पोता–रमचेलबा–मन पड़लैन। तखने देखलैन‍ जे तीमन-तरकारीक मोटरी माथपर नेने दच्‍छिनसँ अबैए‍। रमचेलबाकेँ देखते बाबाक मन सहैम‍ गेलैन‍ जे सभ दि‍न पोताकेँ संग नेने जाइ छेलौं, आ...। लगले मनमे एलैन‍ जे जे पूत हरवाहि करए गेल देव-पि‍तर सभसँ गेल...। तैबीच हाथमे लोटा देख रमचेलबा लग आबि पुछि देलकैन-
केतए गेल छेलह बाबा हौ?”
बाबा अवाक भऽ गेला।मनमे उठलैन- आब तँ यएह सभ ने करत, तँए अनुकूल बना राखब जरूरी अछि। निधोख होइत बाबा बजला-
बौआ, तूँ हाटपर गेलह आ एमहर बिझो भऽ गेलै तँ की‍ करि‍तौं?”  
जहि‍ना नि‍धोख बाबा बजला तहि‍ना रमचेलबा पुछलकैन-
बनलह कि‍ने?”
बाबाकेँ मन पड़ि‍ गेलैन‍ पूर्वांचलक मणिपुरी भोज; जइमे जे वस्‍तु जेते नीक रहै छै ओ ओते पहि‍ने परोसि खुऔल जाइए। मुदा अपना ऐठाम तँ अन्नकेँ अन्न बुझनि‍हार आगूमे आएल पहि‍ल अन्नक पूजा करत...। बाबा बजला-
बौआ, नीक भेलौ जे तों नइ गेलेँ।
अपन बात सुनि‍ रमचेलबा पुछलकैन-
से की हौ?”
अनुकूल होइत रमचेलबाकेँ देख बाबा कहलखिन-
धुर! हूसा गेल।
अकचकाइत रमचेलबा पुछि देलकैन-
से की हौ?”
की कहबौ, भात-दालि‍ बड़ पवि‍त्र बनल छेलै, तैपर अल्‍लू-परोरक तरकारी तेहेन बनल छेलै जे देखि‍ए कऽ मन हलैस‍ गेल। खूब खेलौं। तेकर पछाइत‍‍ जे नीक-नीक वि‍न्‍यास सभ आबए लगलै, ओकरा दि‍स केना तकितौं!”
तब तँ खूब बनलह?”  
अपूछ भऽ गेल!”m


शब्‍द संख्‍या- 204

No comments:

Post a Comment