दूधबला
फगुआक समए। पीह-पाहसँ
मौसमक रंग चढ़ि रहल छल। दिनुका काज उसारि नित्यानन्द काका दरबज्जापर बैस
सालक फगुआक नीक-बेजापर ऊपर-निच्चाँ विचारि रहल छला। जाड़सँ गरमीक प्रवेश भऽ रहल
अछि। ठाढ पानिकेँ इनहोराइ-ले ठंढ मारि तँ सिरसिसाइए पड़तै। जँ से नइ तँ
इनहोराएत केना? मुदा तेहेन दोखाह दोरस हवा बहि गेल जे सोझ बाट माने नीक रस्ता बाउल-गरदासँ
अन्हरा कऽ तेहेन बहबाँरि बनि रहल अछि जे भरि मुँह बाजब कठिन भेल जा रहल अछि।
सूर्यास्त तँ भऽ गेल
मुदा अन्हराएल नै छेलइ। मोटर साइकिलसँ उतैर मनोहर नित्यानन्द काकाकेँ प्रणाम
करैत आगूक चौकीपर बैसल।
किछु दिन पूर्व धरि
नित्यानन्द काका मनोहरकेँ दूधबेच्चा बुझै छला, मुदा पनरह-बीस दिन पहिने
शंका जगलैन से जगले रहि गेलैन। जइसँ विचार बदलए लगल छेलैन। मुदा कोनो विचारकेँ
बदलैसँ पहिने ऊपर-निच्चाँ देख लेब जरूरी बुझि पुछलखिन-
“कारोबारक की
हाल छह?”
नित्यानन्द कक्काक
उत्तर दइसँ पहिने मनोहरक मनमे आएल जे जखन फगुआक सनेस अनने छिऐन तखन आगूमे रखैमे
कोन लाज। अनेरे ‘साँइक नाओं सभ जानए आ हए-हए करए!’ जुगोक तँ धर्म होइ
छइ। के भँगखौका शराब नै पीबैए। ओ सभ तँ निशोकेँ पानि उताइर देने अछि। भाय जखन
एकटा प्रेमी अछि तखन तँ जिनगी भरि प्रेम करू नइ तँ पुरुखक आँखिसँ गिरब ओते महत
नै रखै छै जेते मौगीक आँखिसँ। ..मुदा अपनाकेँ सम्हारि विचारि लेब जरूरी बुझि
बाजल-
“काका, आइक
जुगमे दूध बेचने गुजर चलत, तखन तँ..?”
मनोहरक बात नित्यानन्द
काकाकेँ ठहकलैन। मुदा तेयौ मन नै मानलकैन बजला-
“केते गोरे
गाममे दूधबेच्चा छह?”
गर पाबि मनोहर बाजल-
“काका, आब कि
कोनो गाइए-महींसिक दूध बिकाइए! आब तँ गाछसँ लऽ कऽ लोहा धरिक
दूध बिकाइए। केतेक नाओं कहब। जेम्हरे देखै छी, तेम्हरे
सएह।”
‘सएह’क सह पाबि नित्यानन्द काका हूँहकारी भरलैन-
“से सएह।”m
शब्द संख्या- 275
No comments:
Post a Comment