Monday, November 21, 2016

बुढ़िया दाादी, कथाकार श्री जगदीश प्रसाद मण्‍डल

बुढ़ि‍या दादी

नहि जानि‍ दादीकेँ एहेन क्रोध किए भऽ गेलैन‍। एक तँ औहुना बैशाख-जेठक सुखाएल जारैन‍ चरचराइत रहैए, खढ़क छाड़ल-छार पटपटाइत रहैए, तइ हि‍साबे दादियोक खटखटाएब अनुकूले भेल। दादी माने तीन पीढ़ी ऊपर नहि, गामक बनौआ दादी। नवो-नौतारि‍ बनौआ दादी होइते छैथ, उचि‍तो छइ।
आठ-दस बर्खक पोता अपन कुत्ताकेँ अनठि‍यासँ लड़ा देलक जइसँ कोनचरक सजमैनक गाछ टुटि‍ गेलैन‍, तेकरे तामस दादीकेँ पोतापर रहैन‍। जखन टुटलैन‍ तखन बाधमे रहैथ‍ तँए नै देखलखि‍न। तखन ततबे, कुत्तेक झगड़ा भरि‍।
बारह बजे बाधसँ अबि‍ते, जहि‍ना हजारो चेहराक बीच प्रेमीक नजैर प्रेमि‍कापर जा अँटैक जाइत, तहि‍ना दादीक नजैर सजमैनक गाछपर पहुँच‍‍ गेलैन‍। लटुआएल-पटुआएल पड़ल देखलखि‍न। नरसिंह तेज भेलैन‍, मुदा परि‍वारक सभ गबदी मारि‍ देलक। तँए अधडरेड़ेपर तामस अँटैक गेलैन‍। जँ अकासक पानि‍केँ धरती नै रोकए तँ पताल जाइमे देरी लगतै?
दोसर साँझ जखन बाधसँ घुमि‍ कऽ दादी एली तँ नीक जकाँ भाँज लगि‍ गेलैन‍ जे पोताक कि‍रदानीसँ गाछ नोकसान भेल। तामस लहरए लगलैन‍। छौड़ाकेँ सोर पाड़लखि‍न-
अगति‍या छेँ रौ, रौ अगति‍या?”
नाओं बदलल बुझि‍ गोवि‍न्‍दोकेँ अवसर भेटलै। अन्‍हारे गरे चौकी-दोगमे नुका रहल। अपने फुरने दादी भटभटाए लगली-
भरि‍ दि‍न छौड़ा एमहर-सँ-ओमहर ढहनाइत रहैए आ कुत्ता-वि‍लाइ तकने घुड़ैए!”  
मुदा लगले मन ठमैक गेलैन‍। भरि‍सक अँगनामे नै अछि‍, खाइ-बेर भेल जाइ छै, केतए छिछियाइ-ले गेल जे अखन धरि‍ अँगनामे नै अछि‍। पुतोहुकेँ पुछलखिन‍-
कनि‍याँ, बौआ कहाँ अछि‍।
बेटाकेँ अपन जान सुरक्षि‍त बुझि‍ पुतोहु कहलकैन-
बड़ी-काल सँ नै देखलि‍ऐ।
पोताकेँ तकैले बुढ़ि‍या दादी वि‍दा भेली।  
सुतै बेर गोवि‍न्‍दा अलि‍साएल आबि‍ दादीकेँ कहलक-
दादी बि‍छान बीछा दे।
गोवि‍न्‍दक बात सुनि‍ दादी पि‍घैल गेली। ओछाइन ओछा कऽ सुता देलखि‍न। सेन्‍धपर पकड़ल चोर जकाँ, तामस फेर करुआ गेलैन‍। मुदा नि‍नि‍याँ देवीक कोरामे गोविन्‍दाकेँ देख‍ क्रोध घोंटए लगली। मनमे उठलैन- अखन छोड़ि‍ दइ छि‍ऐ, भोरहरबामे पेशाब करैले उठेबे करत, बुझतै केहेन होइ छै सजमैनक गाछ तोड़नाइ। जाबे सभ करम नै कराएब ताबे चालि‍ नै छुटतै।
भोरहरबामे गोवि‍न्‍द दादीकेँ उठबैत बाजल-
दादी-दादी।
दादी गबदी मारैक वि‍चार केलैन‍। मुदा तीन बेरक पछाइत‍‍ तँ गरि‍येबे करत, तइसँ नीक जे तेसर हाकमे अपने बाजि‍ दिऐ। की हेतै, एकटा सजमनि‍येँक गाछ ने टुटल। फेर रोपि‍ लेब।m

शब्‍द संख्‍या- 332 

''बजन्‍ता-बुझन्‍ता'' बीीहैन कथा संग्रहक दोसर संस्‍करणसँ सँसाभार...

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